।।मिलत पिआरे प्राण नाथु कवन भगति ते।।
।।राग मल्हार।।
मैंने पहले भी कहा था कि, गुरु रविदास जी महाराज जन्मजात परिपूर्ण सन्त, गुरु, सर्वोच्च आध्यात्म के केंद्र हुए हैं, जिन का धरती के ऊपर कोई भी साम्य नहीं रखता है। जिन व्याख्याकारों ने गुरु रविदास जी को साधक के रूप में चित्रित कर के संबोधित करते हुए शब्दों की व्याख्या की है, उन्होंने गुरु जी के कद को घटाने का ही काम किया गया है। गुरु जी ने, सांसारिक कमजोरियों के भंडार मनुष्य की मुक्ति के लिए, आदपुरुष से अरजोई करते हुए, उस के पास जीव जगत और मानव के कल्याणार्थ वकालत की है। वे धरती के ऊपर आदिपुरुष के भेजे गए सम्पूर्ण अवतार थे, जिन्होंने ब्राह्मणों के आतंक से केवल भारत के मूलनिवासियों को ही नहीं, बल्कि समूचे विश्व के लोगों को मुक्त कराने के लिए अपने आप को अनेकों तसीहे सहन करने के लिए प्रस्तुत किया था। गुरु जी ने शांतिपूर्ण तरीके से ब्राह्मणों को सत्य को समझने के लिए प्रेरित किया मगर भूले भटके ये लोग सत्य को नहीं समझ सके और गुरु जी को अपना दुश्मन मानते रहे। ब्राह्मणों की नींव ही छलकपट की दहलीज पर टिकी हुई है, बेईमानी इन की रग रग में रच चुकी है, इन की सफेद रंग की धोती, चंदन के तिलक और शंख केवल मात्र पापों को छुपाने के मूलमंत्र ही हैं, जिन का शिकार मूलनिवासी होते आए हैं। गुरु रविदास जी महाराज ने, जो कुछ किया वह ब्राह्मणों के ठीक विपरीत किया और समझाने का प्रयास किया है, कि आप पथभ्रष्ट ब्राह्मण हो मगर इन लोगों ने गुरु जी के सुकृत्यों को हमेशा ही विपरीत और ऋणात्मक ही लिया। गुरु जी ने जिस सिला के ऊपर रैदास और जगजीवन दास चमड़े के जूते बनाते हैं, उसी को गंगा में तैराया था, जब कि ब्राह्मणों ने अपने पवित्र पत्थर के देवता तारने का ढोंग रचा मगर असफल रहे और वे गंगा में डूब गए थे, गुरु जी ब्राह्मणों के प्रदूषित जल से नहीं नहाते थे, इसीलिये वे ब्राह्मणों से ऊपर गंगा स्नान करते थे, मगर जब ब्राह्मणों ने राजा के पास झूठा पर्चा कटवाया और कहा, कि महाराज, रविदास हम से ऊपर नहाता है और पानी को गंदा करता है, जिस का न्याय किया जाए, मगर जब ब्राह्मण राजा को गंगा तट पर ले गए और पूछा कि रविदास कहाँ स्नान करते हैं? ब्राह्मणों ने जिस स्थान को बताया था, वहां से तो गंगा ही विपरीत दिशा में वह रही थी। जब संत मीराबाई गुरु जी की शिष्या बन गई, तब उस के पीयर और सुसराल वालों ने गुरु जी को घात रख कर, सतसंग करने के बहाने चितौड़गढ़ महल में बुलाया और अपने काले कंबलों में छुरे, तलवारें ले कर पंडाल में बैठ गए थे, जब गुरु जी ने शब्द कीर्तन शुरू किया और उन के शब्दों की धुन उन छली हत्यारों, पापियों के अंतःकरण को चीरने लगी, तो वे सभी मंत्रमुग्ध हो गए और उन के बरछे, तलवारें आत्मविस्मृत अवस्था में धरती के ऊपर गिर पड़े, जिस से उन के समस्त पाप कर्म जगजाहिर हो गए। जगन्नाथपुरी में ब्राह्मण पंडे पुजारी भीलों के चढ़ावे तो डकार जाते थे, लेकिन उन्हें कथा और आरती सुनने नहीं देते थे, जिस अन्याय को दूर करने के लिए गुरु जी खुद वहां गए। जब उन्हें भीलों के साथ जगन्नाथ के मंदिर से निकाल दिया गया था, तब गुरु जी ने, मन्दिर के दूसरी ओर मुंह कर के अछूत भीलों के साथ सस्वर आरती गाई थी। जब उन की आंखें खुलीं तो जगन्नाथ की मूर्ति उन के सामने थी, फिर ऐसे परिपूर्ण गुरु को संबोधित कर के अर्थ निकालना सूर्य को दीपक दिखाना ही है। गुरु रविदास जी ने इस शब्द में साधक को फरमाया है कि, हे भाई! प्राणनाथ अर्थात आदपुरुष किस प्रकार मिल सकते हैं:---
मिलत पिआरे प्राण नाथु कवन भगति ते।।
साध सँगति पाई परम गते।।रहाउ।।
गुरु रविदास जी महाराज संगत को पूछते हैं, कि प्राणों से प्रिय नाथ अर्थात आदपुरुष मनुष्य को किस भक्ति से मिल सकते हैं? गुरु रविदास जी महाराज खुद ही साध सँगत को उतर देते हुए फरमाते हैं, कि साध संगत के बीच रह कर ही, हम परमपिता परमेश्वर को प्राप्त कर सकते हैं, अर्थात आदपुरुष को प्राप्त करने के लिए केवल साध सँगत की ही जरुरत है।
मैले कपरे कहां लउ धोवउ।।
आवैगी नींद कहां लगु सोवउ।।१।।
गुरु रविदास जी फरमाते हैं कि, मैले कपड़े पहन कर नींद कहां आती है और कोई कैसे सो सकता है? इसलिए मैले कुचैले कपड़ों को कहां धोया जा सकता है? अर्थात गुरु रविदास जी महाराज, प्रिय साध संगत को फरमाते हैं, कि जिस प्रकार ज्योतिर्मंडल में चलने वाली वायु से कपड़े गंदे हो जाते हैं और उस की दुर्गंध के बीच मनुष्य सो भी नहीं पाते हैं, वैसे ही काम, क्रोध, मोह, लोभ, अहंकार और माया के प्रदूषण से आत्मा रूपी कपड़ा गंदा हो जाता है और उस गंदगी के कारण मनुष्य सुख चैन की जिंदगी नहीं गुजार सकता है। उस का अंतःकरण अपवित्र हो जाता है और संसारिक बन्धनों में पड़ कर अज्ञानता के बीच ही भटकता फिरता रहता है, यदि उसे साध संगत नहीं मिलती है, तो वह आजीवन इसी मूर्खता की गंदगी में पड़ा रहता है।
जोई जोई जोरिउ सोई सोई फाटिउ।।
झूठे वनजि उठि ही गईं हाटिउ।।२।।
गुरु रविदास जी महाराज अपने अनुभवों को व्यक्त करते हुए फरमाते हैं, कि हे साध संगत जी! आप के मिलने से पहले जो जो हमने, काम, क्रोध, मोह, लोभ, अहंकार और माया के कारण जोड़ जोड़ कर संग्रह किया था, वह सब कुछ आप के मिलने पर वैसे ही बर्बाद हो गया जिस प्रकार पुराने कपड़े फट जाते हैं। जो जो झूठा व्यापार आप के मिलने से पहले किया था, उस का सारा ही बाजार बर्बाद हो गया है अर्थात ज्योतिर्विज्ञान ही संगत के मिलने पर ही प्राप्त हो सका है और मन के अंदर पांचों विकारों के झूठ के बाजार बंद हो गए हैं।
कहु रविदास भइउ जब लेखिउ।।
जोई जोई कीनो सोई सोई देखिउ।।३।।
गुरु रविदास जी महाराज फरमाते हैं, कि जीवन के अंत में जब अच्छे और बुरे कर्मों का लेखा जोखा होता है, उस समय ही ज्ञात होता है कि जीवन में जो जो कर्म किए हैं, वही उस समय दिखाई देते हैं। इसीलिए गुरु महाराज समझाते हैं कि, साध संगत के बीच रह कर ही ज्योतिर्ज्ञान की प्राप्ति होती है और उस से पहले के कर्मों की यदि पड़ताल की जाए, तो स्पष्ट हो जाता है, कि बुरे कर्मों का लेखा जोखा समाप्त हो गया है, यह सब कुछ साध संगत की बदौलत ही ऐसा होता है।
शब्दार्थ:--- प्राणनाथु- श्वासों के मालिक, आदिपुरुष। ते-से। परम गते-चरम सीमा, अध्यात्म की उच्चतम अवस्था। मेले कपरे-गंदे कपड़े, पांच विकारों से मलिन आत्मा। कहा लउ-कब तक। नींद-निंद्रा, अज्ञानता की नींद। फाटिउ-फटा हुआ, दूर हो जाना। झूठे वनजि-झूठ का व्यापार, बुरे कर्मों का व्यापार। उठि ही गई-बर्बाद हो गई। हाटिउ-बाजार। भयउ-होता है।