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बुधवार, 18 अगस्त 2021

सुख सागर सुरतरु चिंतामणि

  जगत गुरु रविदास जी महाराज जब ब्राह्मणों के साथ में विचार गोष्ठी हो रही थी तब जगत गुरु रविदास जी महाराज ब्राह्मणों को इस वाणी के माध्यम से समझाते हैं और उस वक्त सभी ब्राह्मण सतगुरु रविदास जी महाराज के सानिध्य में आकर उनको अपना गुरु मान बैठे थे।आइए आप और हम भी समझते हैं इस बाणी की व्याख्या राम सिंह आदवंशी ने की है

        ।।सुख सागर सुरतरु चिंतामणि।।

                             ।।राग सोरठ।।

ब्राह्मणों ने ऐसे ऐसे अविष्कार किये हुए हैं, कि जिन को सुन कर आदमी तो क्या आदपुरष भी सकते में पड़ जाते होंगे, क्योंकि इन लोगों ने चार चार मुखड़ों वाले आदमियों का खोज की हुई है, कोई शेषनाग की भी रचना की हुई है, जो अपने सारथी को पूर्ण संरक्षण देकर उस की रक्षा करता है। कोई बंदर के मुंह की तरह वानर रूप में ईजाद किया गया है, इसी तरह कई पेड़ भी ऐसे ही खोज डाले हैं, जिन को देव तरु कहा जाता है और कई ऐसी मणियाँ हैं, जो चिंताओं को नष्ट कर देती है, ऐसी देवियाँ भी है जो चिंताओं को खत्म कर देती है मगर उसके  बावजूद भी लोग सुखी नहीं रहते हैं, इन्हीं अलौकिक शक्तियों का पोस्टमार्टम कर के गुरु रविदास जी महाराज ने इस शब्द में फरमाया है:---

सुख सागर सुरतरु चिंतामणि।

कामधेनु बसि जा के।।

चारि पदारथ असतट दसा सिधि।

नव निधि करतल ता के ।।१।।

गुरु रविदास जी महाराज परमपिता परमेश्वर आदपुरुष की सर्वोच्चता का वर्णन करते हुए फरमाते हैं, कि हे ब्राह्मण! जिस सुख के सागर अर्थात आदपुरुष के वश में आप के स्वर्ग की कामधेनु गाय और चिंताओं को नष्ट करने वाले चिंतामणि जैसे पत्थर हैं, कल्प वृक्ष जैसे देव वृक्ष आप की इच्छाओं को पूरे करने वाले हैं, चारों पदार्थ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, नौ निधियां, और अठारह सिद्धियां आदि ये शक्तियाँ काम करतीं हैं, तुम इन का यशोगान करते हैं और उन की ही भक्ति और साधना करते हैं, परंतु जिस आदपुरष ने इन को बनाया है, उस की भक्ति आप लोग क्यों नहीं करते हो?

हरि हरि हरि न जपि रसना।।

अवर सभी तिआगि वचन रचना।।१।।रहाउ।।

गुरु रविदास जी महाराज फरमाते हैं, कि है महा बुद्धिमान ब्राह्मण! तू अपनी जिह्वा से हरि को पाने के लिए सोहम का जाप क्यों नहीं करता है? क्यों आदमी द्वारा निर्मित वेदों, पुराणों आदि धर्म ग्रंथों को त्याग कर केवल आदपुरुष का ही सिमरन क्यों नहीं करता है?

नाना खिआन पुरान वेद विधि।

चौउतीस अखर माहीं।। 

गुरु रविदास जी महाराज ब्राह्मणों को समझाते हुए फरमाते हैं, कि हे ब्राह्मणों! आप कल्पित विधाताओं के वेदों पुराणों के कल्पित विचारों के ऊपर क्यों विश्वास करते हो? देवनागरी लिपि के चौतीस अक्षरों में वेद व्यास आदि लेखकों द्वारा रचे गए परोपकारी साहित्य का गहन अध्ययन कर के, आपस में विचार-विमर्श करके शाश्वत सत्य को क्यों नहीं समझते हो? हरि के सिमरन के बराबर ये सभी रचनाएं व्यर्थ हैं, फिर भी तू हरि का सिमरन क्यों नहीं करता है? कल्पित साहित्य को आप क्यों महत्व दे कर के उन में लिखे गए धार्मिक विचारों को क्यों अपनी पूजा का साधन मानते हो।

बिआस विचारि कहिउ परमारथ।

राम नाम सरि नाहीं।।२।।

गुरु रविदास जी महाराज फरमाते हैं, कि जिस ब्यास ने, वेदों, पुराणों में परोपकारी साहित्य की रचना की है, वह तो राम नाम के समान नहीं है, फिर तू हे ब्राह्मण! इस पर विचार क्यों नहीं करता है? कि ये मनुष्य द्वारा रचित साहित्य अधूरा ज्ञान का भंडार है और निराकार ईश्वर का स्मरण क्यों नहीं करता है?

सहज समाधि उपाधि रहत फुनि।

बडै भागि लिव लागी।। 

गुरु रविदास जी महाराज ब्राह्मण को समझाते हुए बताते हैं, सरल समाधि लगा कर के मन में तनिक भी दुख नहीं रहते हैं अर्थात व्यक्ति सुखी रहता है, हम तो बड़े सौभाग्यशाली हैं कि हमारी लग्न आदपुरष से लगी हुई है, तूँ भी मॉनव कृत कल्पित ग्रथों के अज्ञान से मुक्त हो कर आदपुरष से ही लिव लगाओ, तभी सुखी जीवन जी सकते हो।

कहि रविदास परगासु हिरदै धरि।

जनम मरण भै भागी।।३।।४।।

गुरु रविदास जी महाराज जनमानस को समझाते हुए फरमाते हैं, कि जिस के हृदय में परमपिता परमेश्वर अर्थात आदपुरुष का दिव्य ज्योतिर्ज्ञान प्रकाशमान हो जाता है और वह आदमी उस प्रकाश को हृदय में धारण कर लेता है, उस का जन्म मरण का डर भी खत्म हो जाता है अर्थात उस आदमी को ईश्वर के दर्शन हो जाते हैं, जिस से उसे मृत्यु का कोई भय नहीं सताता है।

शब्दार्थ :--- सुरतरु-देव तरु, कल्प वृक्ष, कल्पित वृक्ष जो बाधाओं को मिटाता है।चिंतामणि-चिंताओं को दूर करने वाली हिंदुओं की कल्पित मणी/पत्थर। कामधेनु-स्वर्ग में रहने वाली हिंदुओं की कल्पित गाय। चारि पदारथ-जीवन में प्रयोग होने वाले चारों पदार्थ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। असट दसा-अठारह। नव निद्धि-नौ खजाने। करतल-हथेलियां। जपहि-जपता है। रसना-रस लेने वाली अर्थात जिह्वा। वचन-कथन, विचार। रचना-लिखित, लेख। नाना-अनेकों। खिआन-प्रसंग, कथा। बिधि-विधाता। चउतीस-देवनागरी लिपि के चौतीस वर्ण। बिआस-व्यास महाऋषि। परमारथ-परोपकार, दूसरों का भला। सहज-सरल, स्वाभाविक। समाधि-एकाग्रता से आदपुरष का ध्यान लगाना। उपाधि-दुख, क्लेश। फुनि-दुबारा, पुनः। हिरदै धरि-मन में धारण करना।

व्याख्या ,रामसिंह आदवंशी।

अध्यक्ष।

विश्व आदधर्म मंडल।

अखिल भारतीय संत शिरोमणि रविदास मिशन

  अभय दास देवबंद।