सिख धर्म के सबसे महान विद्वान ज्ञानी दित्त सिंह चमार - ज्ञानी दित्त सिंह जी का जन्म 21 अप्रैल 1850 में गांव बस्सी पठाना , लाहौर पाकिस्तान में एक चमड़े का काम करने वाले चमार परिवार में हुआ जिनको सिख धर्म में रविदासिया सिख के नाम से जाना जाता है । अपनी प्राइमरी शिक्षा उन्होंने गुरबख्श सिंह और लाला दयानंद जी से गांव तिऊर , ज़िला अम्बाला , हरियाणा से प्राप्त की । इस दौरान उन्होंने उर्दू , गुरमुखि और फारसी भाषा में महारत हासिल की । 1881 में जब सिखों की गिनती सिर्फ 16 लाख रह गई थी तब इनके प्रचार की बदौलत ही सिखों की गिनती बढ़नी शुरू हुई थी , जब और धर्मों के लोग भी सिखी के साथ जुड़ना शुरू हो गए थे ।
👉 इन्होंने अपने 51 साल के जीवन में 70 से भी ज्यादा किताबें लिखी ।
👉 दुनिया के सबसे पहिले पंजाबी प्रोफेसर ।
👉 सिंह सभा लहर की संस्थापना और खालसा कालेज अमृतसर की संस्थापना इन्होंने ने की थी ।
👉 स्नातन धर्म के उस समय के सबसे बड़े विद्वान स्वामी दयानंद को 4 बार विचार चर्चा में हराया ।
👉 1873 में जब ईसाई मिशनरियों और आर्य समाज का प्रचार जोरों पर था और लोग सिख धर्म से दूर हो रहे थे तब दिन रात एक करके लोगों को सिख धर्म के साथ जोड़कर उसकी नींव मजबूत की ।
आखिर ये महान चमार 06-09-1901 को इस संसार को छोड़कर चला गया । अगर यह हीरा किसी और जाति का होता तो इसके नाम से कालेज , यूनिवर्सिटी आदि बनाई जाती , चमार होने की वजह से इनका ज़्यादा नाम नहीं लिया जाता । लेकिन हमें हमेशा इस बात का गर्व रहेगा सिख धर्म को जब सबसे बड़े मुश्किल समय से गुजरना पड़ रहा था तो उसको बचाने वाला हमारे महान चमार वंश का योद्धा था । चलो इस से हमें एक बहुत बड़ी सीख मिलती है कि किसी और धर्म के लिए अपना पूरा जीवन लगाने के बाद भी चमार विद्वान इतिहास के पन्नों में ही गुम होकर रह गए । तो हमें अपने आज़ाद रविदासिया धर्म का प्रचार करना चाहिए , गुरु रविदास जी की बानी पढ़कर उसमें नई-नई खोज करनी चाहिए । क्योंकि जिनका अपना धर्म नहीं होता उनका अच्छे से अच्छे इतिहास दूसरे धर्मों में मिश्रित होकर खत्म हो जाता है । जब तक कोई कौम अपने इतिहास के सुनहरी पन्नों में से प्रेरणा नहीं लेती तब तक उनमे नेतृत्व करने का जीतने का जज़्बा पैदा नहीं होता । इस लिए हमें अपने रविदासिया धर्म के साथ जुड़ना चाहिए ताकि हमारा इतिहास रविदासिया धर्म के अधीन लिखा जाए और आने वाली पीढियां उसको पढ़कर प्रेरणा लेकर ज़िन्दगी का हर मैदान फतिह ( जीत ) कर सकें ।
अभयदास जी देवबंद