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शनिवार, 10 सितंबर 2022

क्यों इतने ब्राह्मण भारत छोड़कर विदेश जा रहे हैं?

 

क्यों इतने ब्राह्मण भारत छोड़कर विदेश जा रहे हैं?

अमेरिका में भारतीय मूल के लोगों में ब्राह्मणों की संख्या लगभग ३०% बताई जाती है। जबकि भारत में ब्राह्मणों की संख्या पाँच प्रतिशत से कम होने का अनुमान है । इससे प्रतीत होता है कि भारत से जाने वाले लोगों में ब्राह्मणो का अनुपात काफी है। इसमें पलायन व विकसित देशो में जाकर रहना दोनो कारण शामिल हैं .

ब्राह्मणो के भारत से पलायन का कारण है भारत में ब्राह्मण विरुद्ध राजनैतिक माहौल और कुछ स्थितियों में ब्राह्मणो पर सीधा हमला। काफी कश्मीरी पंडितों ने विदेशों में शरण ली थी , जो बेचारे उतने सक्षम नहीं थे वो आज भी अपने देश में ही शरणार्थीयों की तरह से रह रहे हैं। उनकी स्थिति बँटवारे के बाद पाकिस्तान में फँसे हिन्दुओ जैसी है , गरीब के लिए तो पलायन भी कठिन होता है।

कश्मीर के अतिरिक्त भी भारत में अलग अलग हिस्सों में ब्राह्मणों पर सीधे हमले हुए हैं। और कुछ नहीं तो ब्राह्मण विरोधी राजनीति एक चलन बन गया था। तमिलनाडु से बहुत ब्राह्मणो ने पलायन किया है। आंध्र प्रदेश से ब्राह्मणों के पलायन की घटनाएँ सुनने में आई हैं।

भारत के हर प्रदेश से पलायन नहीं हुआ है . पलायन के प्रदेश वही हैं जहाँ संख्याबल कम है।


तरह तरह से ब्राह्मण विरोध खुलकर व्यक्त किया जाता है रहा है , किसी अन्य जाति का ऐसा विरोध जातिवाद की श्रेणी में आता है। पर जाति के आधार पर ही ब्राह्मण विरोध तो जातिवाद का ही विरोध है।

ये देखिए तमिलनाडु में छ्पा एक कार्टून . एक सूअर को जनेऊ पहनाकर बनाया गया ये कार्टून ब्राह्मणों पर भड़ास निकालने का प्रयास है ।

ब्राह्मण: हमारे लिए तो वाराह अवतार पूजनीय है इसमें क्या अपमान? 🙏🙏🙏 इसको बनाने वाले के मन मे गुबार को देखकर तो लगता कि बेचारा बहुत दुखी है .

इस कार्टून को देखें। ब्राह्मण की चोटी एक सर्प की भाँति गरीब को डस रही है। और हाथ में मनु और वेद लिये हुए है.

यहाँ पर प्रश्न है कि क्या इन पुस्तकों को केवल ब्राह्मण मानते हैं ?

  • यदि इन पुस्तकों को केवल ब्राह्मण मानते हैं तो सिद्ध हुआ कि वे समाज को प्रभावित ही नहीं कर पा रहे। और इस स्थिति में वे किसी के विरुद्ध इनका प्रयोग कैसे करेंगे।
  • यदि इन पुस्तकों को समाज के अन्य वर्ग भी मानते हैं तो फिर इनको ब्राह्मणो से जोड़ने का क्या प्रयोजन ?

आँकड़े ये कहते है कि दलितों को छोड़कर अन्य सभी जातियों में ब्राह्मण सबसे अधिक गरीब हैं।

वास्तविकता ये है कि कुछ चुनिन्दा ब्राह्मणो को छोड़कर भारत के सभी ब्राह्मण सुदामा की तरह दरिद्र हैं। जो स्वयं ही दरिद्र है वो किसी को किस प्रकार की प्रताड़ना दे सकता है ? किसी प्रकार का झगड़ा उसके बस की बात नहीं . इक्का दुक्का कहीं मंदिर में जाने रोकने जो घटनाएँ होती थी वो पुरानी हो गई हैं।

लाक्षागृह काण्ड के बाद जब पाण्डव एक गाँव में जाकर रुके तो एक ब्राह्मण का आश्रय मिला। उस गाँव के लोग बकासुर नाम के राक्षस के यहाँ बारी बारी से जाते थे और जो भी जाता था बकासुर उन्हें खा जाता था। ये ब्राह्मण इतना शक्तिशाली तो नहीं था कि उसे ना जाना पड़े ना ही ऐसा था की गाँव वाले इतना सम्मान करते हो कि उसे ना जाने दें। इसके स्थान पर भीम ने जाकर बकासुर वध किया था , लेकिन गाँव वालो के ऊपर उसका कोई विशेष अधिकार नहीं था।

हम प्राचीन कथाओं के ऋषियों को ब्राह्मण कहकर उनको जाति में बाँटते रहते जबकि वो जाति रहित थे। उस समय जातियाँ तो नहीं थी लेकिन पैतृक व्यवसाय दो देखा जा सकता है। महाभारत लिखने वाले वेद व्यास की माता मछुहारे की बेटी थी , बताया जाता है कि रामायण लिखने वाले वाल्मीकि एक समय डाकू थे , फिर भी समाज ने उन्हें इतना सम्मान दिया। महर्षि विश्वामित्र एक राजा से ऋषि बने।

नीचे दिए इस चित्र को देखिए क्या लिखा है ?

"ब्राह्मणिक पितृसत्ता का दमन कर दो"

अब ब्राह्मणिक पितृसत्ता क्या बला है भाई ? यदि केवल पितृसत्ता की बात हो तो पितृसत्ता पूरे विश्व में रही है। अब भारत छोड़कर विश्व भर की समस्याओं का दोष ब्राह्मण लेंगे ?


जातिवादी हिंसा में ना शामिल होते हुए भी ब्राह्मण ही दोष लेगा

भारत की हर समस्या का दोष ब्राह्मण को देना बड़ा सरल है , इससे कोई राजनैतिक नुकसान होने की सम्भावना नही दिखती । किसी प्रताडन में यादव शामिल हो , जाट शामिल हो , ठाकुर शामिल हो , या ब्राह्मण शामिल हो लेकिन दोष सभी का ब्राह्मण को ही है।

दलितों पर अत्याचारों की घटनाओं का विश्लेषण करके पता चलता है कि अधिकांश घटनाओं में ब्राह्मण एक पक्ष होता ही नहीं है। इस पृष्ठ पर भारत के जातीय दंगो या झगड़ो की सूची है। इसमें ब्राह्मणों का नाम उन्ही स्थानों पर आता है जहाँ वो मारे गए।

भारत में जाति से संबंधित हिंसा - विकिपीडिया

दलित को किसी ने भी मारा हो दोष तो ब्राह्मणो को दिया जाना है तो क्या हर्ज कि फिल्म में नाम बदलकर ब्राह्मण कर दिया जाए। जिसको ये ही नहीं जानना है कि उस पर हो रहा अत्याचार आ कहाँ से रहा है , क्या उस पर अत्याचार घटेगा ?

इस फिल्म में जो दिखाया गया है वो भारत में हो तो रहा है , सत्य घटना पर आधारित भी है फिल्म , बदलाव बस इतना है कि किया किसी और ने और फिल्म ने दिखाया ब्राह्मण।


गालियाँ और भड़ास निकलना सामान्य है

राजनैतिक स्तर पर ब्राह्मणों को जमकर गालियाँ दी जाती है जो जिसको समाज सेवा के काम गिना जाता है ।

कालिजों में अक्सर कुछ जातिवादी ग्रुप बन जाते हैं जिनका काम ब्राह्मण छात्रों को गालियाँ देना होता है। मेरे कालिज के कुछ जातिवादी ग्रुप अपनी मंत्रणाएँ करते थे और उन मंत्रणाओं मे जिन्हे गालियॉं दी जाती उनमे मैं भी था। कारण ? मेरा ब्राह्मण होना। कालिज जैसे स्थान में जहाँ बड़े बड़े जात धर्म छोड़ देतें हैं वहाँ ये खुद को अलग थलग करके फिर दूसरों को जातिवादी भी बताते हैं। संयोग से उन मंत्रणाओं में जाने वाले सभी लोगों को ये बाते पसंद नहीं आती थी , उन्ही कुछ के कारण मुझे इस घृणा का पता भी चला था।


घृणा के कारण दलित नेतृत्व से सद्भाव नदारद

समाज मे ये घृणा इतनी अधिक हो चुकी थी कि दलों को ब्राह्मणों से किसी राजनैतिक लाभ की भी इच्छा नहीं थी। २००७ के चुनाव के पूर्व स्वयं सुश्री मायावती जी को ये विश्वास नहीं था कि ब्राह्मण उनको वोट दे सकते हैं। उनका मष्तिस्क ये कल्पना किये हुए था कि जितना गुबार उनके मन में ब्राह्मणो के प्रति है, ब्राह्मण उससे कहीं अधिक नफरत उनसे करते हैं। लेकिन जब उन्होंने अपना मन बदला तो परिणाम सबने देखा। जो पेड़ आपको छाया दे सकता है आप आँख मूँदकर काटने में लगे हो।

आज किसी भी दलित नेतृत्व को ब्राह्मण के समर्थन से भय लगता है , नफरत के आधार तो समर्थन प्राप्त हुआ वो कहीं चला ही ना जाए।

ये लिखते तो है जाति है कि जाती नहीं , लेकिन जाति के ना जाने की सबसे बड़ी बाधा वो स्वयं बने हैं। अरे आपको जाती समाप्त करनी होती तो लोग अंतर्जातीय विवाह कर रहे हैं उनसे मिलकर उनको प्राहोत्साहन देते।


प्रदेश या राष्ट्रिय स्तर पर कोई ब्राह्मण दल नहीं

कोई बड़ा राजनैतिक दल नहीं जो केवल ब्राह्मणों का हो। कोई बड़ा नेता नहीं जो खुलकर खुद को ब्राह्मण नेता कहता हो। जबकि अन्य सभी समुदायों के नेता भारत में हैं , फिर भी ब्राह्मण पर प्रथम हमला होता है।

उत्तर प्रदेश में यादव 10 प्रतिशत हैं लेकिन उनका अपना एक अलग राजनैतिक दल है , ब्राह्मण भी 10 प्रतिशत हैं उनका अलग राजनैतिक दल नही है . उत्तराखण्ड में ब्राह्मणो का प्रतिशत 30 है , फिर भी अलग दल नही . पाँच प्रतिशत जाटो की भी पार्टी है . हर प्रदेश में उसकी जातियोंं के अनुसार पार्टियाँ हैं कहीँ ठाकुर , कहीँ मराठा , कहीँ राजपूत और ये सभी बडी सहजता से जातिवाद का दोष ब्राह्मणो पर मढते रहते हैं .


दलितों के अंदर की जातियाँ क्योँ शेष हैं ?

मान लेते हैं कि जातिगत विवाह में ब्राह्मण आड़े आते हैं। तो क्या ब्राह्मण दलित और वाल्मीकि के विवाह को भी मना करते हैं ? कितने जाटव हैं जिन्होंने किसी बाल्मीकि से विवाह किया हो ? इसके उलट हजारों ब्राह्मणों के उदाहरण हैं जिन्होंने दलितों से विवाह किया है. डाक्टर भीमराव आंबेडकर जी की पत्नी सविता ब्राह्मण थी , राम विलास पासवान जी की पत्नी ब्राह्मण हैं ? लेकिन दलित वाल्मीकि विवाह के कितने उदाहरण आप दे सकते हैं ? दोष देना सरल है लेकिन कर के भी दिखाना चाहिए। दलितों के अंदर की जतियाँ क्यों समाप्त नहीं हो जा रही हैं , उसे कौन रोक रहा है ?

भारत में आज जो लोग जातिवाद तोड़ रहे हैं उनमे ब्राह्मण ही सबसे अग्रणी है। अंतर्जातीय विवाह करने वालों में ब्राह्मणों का प्रतिशत उनकी आबादी की तुलना में सबसे अधिक है।


इस पलायन के लाभ हानि।

व्यक्तिगत तौर मैंने बड़े जीवनकाल तक भारत से बाहर रहने की नहीं सोची , भ्रमण अवश्य किया। कालिज के समय तक तो मेरा मानना था कि इससे भारत का नुकसान होता है। फिर मैं बहुत भारत प्रेमी रहा हूँ , इसलिए ये विचार नहीं आते थे कि विदेशों में जाकर रहूँ। बाद में ज्यो ज्यो व्यावसायिक अनुभव हुआ तो लाभ हानि के बहुत से पक्ष दिखाई देने लगे.

भारत के समाज लम्बे समय तक व्यवसाय विरुद्ध माहौल भी रहा है। इस परिस्थियों में भारतीय युवा के समक्ष एक ही विकल्प होता था , सरकारी नौकरी। क्योंकि निजी क्षेत्र तो भारत में विकसित हो नहीं पाया। निजी क्षेत्र विकसित नहीं होगा तो करदाता नहीं होंगे। करदाता नहीं होंगे तो सरकारी नौकरियाँ कहाँ से आएँगी। निजीक्षेत्र बढ़ता है तो सरकारी नौकरियाँ स्वयं ही बढ़ती है। यदि चालीस वर्ष पूर्व को प्रतिभा पलायन ना करके भारत में रहे तो उसे यहाँ पर उतने अवसर ही नहीं होंगे। वो प्रतिभा यहाँ रहकर समाज को कुछ नहीं दे पायेगी। बाहर जाकर वहाँ अपना विकास करके और उस धन का कुछ भाग अपने परिवारों को भारत में भेजकर थोड़ा ही सही , अर्थव्यस्था में योगदान तो दिया। फिर वहाँ काम करने वाले लोगों की छवि के कारण ही भारत में IT सेक्टर में काम आया। जिससे यहाँ रोजगार बढ़ें। अब अमरीका में भारतीयों की संख्या एक प्रतिशत है , कनाडा में पाँच प्रतिशत है , और इंग्लॅण्ड में भी पाँच प्रतिशत के आसपास है। ये संख्याएँ इतनी हैं कि राजनीति को भी थोड़ा बहुत प्रभावित कर पाए। तो एक प्रकार से इस पलायन से भारत को लाभ ही पहुँचा है।विदेशी भारतीयो के कारण भारत में निवेश आता है , भारत के राजनैतिक सम्बंध सुधरते हैं .

भारत की जनसँख्या काफी है , उसकी तुलना में विदेश जाने वाले लोगों की कुल संख्या नगण्य है। भारत के व्यवसाय के विरुद्ध माहौल में ये लोग भारत में कुछ ख़ास कर भी नहीं सकते थे। विदेशो में रहकर भी ब्राह्मण भारत और भारतीय संस्कृति का नाम ऊँचा ही करता है। भारत से पलायन करके भी मन में भारत ही बसा होता है।


भारतीय समाज सदैव परिवर्तन शील रहा है। समय समय पर प्रथाएँ पुरानी होती रही है और हमारा समाज उनको छोड़ता रहा है। समाज में जब परिवर्तन के लिए आंदोलन और क्रांतियाँ होती है तब कुछ समय के लिए जोश बहुत अधिक होता है उस दिशा में झुकाव थोड़ा अधिक हो जाता है। तब कोई नई बुराई जन्म ले रही है इस ओर किसी का ध्यान नही जाता . लेकिन समय के साथ वो ठीक भी हो जाता है। पिछली शताब्दी का ब्राह्मण विरोधी माहौल इसी अधिक झुकाव का परिणाम है। जो समय के साथ ठीक हो जायेगा।

उम्मीद करता हूँ कि जब ब्राह्मणों पर भड़ास निकाल लेने के बाद वो भड़ास शांत होगी तब भारत से जातिवाद भी समाप्त होगा।


© सन्दीप दीक्षित , सर्वाधिकार सुरक्षित।

इस प्रकार के अन्य रोचक उत्तर आप मेरे मञ्च विश्वशिरोमणि भारत पर देख सकते हैं। इस आलेख को उद्धृत करते हुए इस लेख की कड़ी/लिंक का भी विवरण दें।

रविवार, 12 जून 2022

संत मीराबाई क्यों गुरु रविदास जी की शिष्य बने

 ऐसा भी कहा जाता है 

जिस श्री कृष्ण जी के मंदिर में मीराबाई पूजा करने जाती थी, उसके मार्ग में एक छोटा बगीचा था। उसमें कुछ घनी छाया वाले वृक्ष भी थे। उस बगीचे में भगतों के साथ  संत रविदास जी सत्संग कर रहे थे। सुबह के लगभग 10 बजे का समय था। मीरा जी ने देखा कि इन संत से तो मैं पहले भी मिल चुकी हूं और मीरा बाई देखती है कि यह संत शिरोमणि सतगुरु रविदास जी महाराज है जिन्होंने मुझे एक बार पहले गिरधर नागर की तस्वीर भी दी थी चलो आज फिर इनसे भेंट करते यहाँ परम पिता परमात्मा की चर्चा या कथा चल रही है। कुछ देर सुनकर चलते हैं।

संत रविदास जी ने सत्संग में संक्षिप्त सृष्टि रचना का ज्ञान सुनाया। कहा कि श्री कृष्ण जी यानि श्री विष्णु जी से ऊपर अन्य सर्वशक्तिमान परमात्मा है।

यदि भगति करने के बाद भी जन्म-मरण समाप्त नहीं हुआ तो भक्ति करना न करना समान है। जन्म-मरण तो श्री कृष्ण जी (श्री विष्णु) का भी समाप्त नहीं हुआ।। फिर 

उसके पुजारियों का कैसे होगा। जैसे हिन्दू संतजन कहते हैं कि गीता का ज्ञान श्री कृष्ण अर्थात् श्री विष्णु जी ने अर्जुन को बताया। गीता ज्ञानदाता गीता अध्याय 2 श्लोक 12, अध्याय 4 श्लोक 5, अध्याय 10 श्लोक 2 में स्पष्ट कर रहा है कि हे अर्जुन! तेरे और मेरे बहुत जन्म हो चुके हैं। तू नहीं जानता, मैं जानता हूँ। इससे स्वसिद्ध है कि श्री कृष्ण जी का भी जन्म-मरण समाप्त नहीं है। यह अविनाशी नहीं है। इसीलिए गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में गीता बोलने वाले ने कहा है कि हे पारथ! तू सर्वभाव से उस परमेश्वर की शरण में जा। उस परमेश्वर की कृपा से ही तू सनातन परम धाम को तथा परम शांति को प्राप्त होगा।


संत रविदास जी के मुख कमल से ये वचन सुनकर परमात्मा के लिए भटक रही मिरा बाई कि आत्मा को नई रोशनी मिली। सत्संग के उपरांत मीराबाई जी ने जगत गुरु रविदास महाराज से प्रसन्न किया कि हे satguru Ravidas ji Maharaj जी! यदि आपकी आज्ञा हो तो मेरा एक प्रश्न है।मेरी शंका का समाधान करो। सतं रविदास जी ने कहा कि प्रश्न करो पुत्री!


प्रश्न:- हे गुरू जी! आज तक मैनें किसी से नहीं सुना कि श्री कृष्ण जी से ऊपर भी कोई परमात्मा है। आज आपके मुख से सुनकर मैं दोराहे पर खड़ी हो गई हूँ। मैं मानती हूँ कि संत झूठ नहीं बोलते। संत रविदास जी ने कहा कि आपके धार्मिक अज्ञानी गुरूओं का दोष है जिन्हें स्वयं ज्ञान नहीं कि आपके सद्ग्रन्थ क्या ज्ञान बताते हैं? देवी पुराण के तीसरे स्कंद में श्री विष्णु जी स्वयं स्वीकारते हैं कि मैं (विष्णु), ब्रह्मा तथा शंकर नाशवान हैं। हमारा आविर्भाव (जन्म) तथा तिरोभाव (मृत्यु) होता रहता है।



मीराबाई बोली कि हे महाराज जी! भगवान श्री कृष्ण मुझे साक्षात दर्शन देते हैं। मैं उनसे संवाद करती हूँ। संत रविदास जी ने कहा कि हे मीराबाई ! आप एक काम करो। भगवान श्री कृष्ण जी से ही पूछ लेना कि आपसे ऊपर भी कोई मालिक है। वे देवता हैं, कभी झूठ नहीं बोलेंगे। मीराबाई को लगा कि वह पागल हो जाएगी यदि श्री कृष्ण जी से भी ऊपर कोई परमात्मा है । 

रात्रि में मीरा जी ने भगवान श्री कृष्ण जी का आह्वान किया। त्रिलोकी नाथ प्रकट हुए। मीरा ने अपनी शंका के समाधान के लिए निवेदन किया कि हे प्रभु! क्या आपसे ऊपर भी कोई परमात्मा है। एक संत ने सत्संग में बताया है। श्री कृष्ण जी ने कहा कि मीरा! परमात्मा तो है, परंतु वह किसी को दर्शन नहीं देता। हमने बहुत समाधि व साधना करके देख ली है। मीराबाई जी ने सत्संग में संत रविदास जी से यह भी सुना था कि उस पूर्ण परमात्मा को मैं प्रत्यक्ष दिखाऊँगा। सत्य साधना करके उसके पास सतलोक में भेज दूँगा। मीराबाई ने श्री कृष्ण जी से फिर प्रश्न किया कि क्या आप जीव का जन्म-मरण समाप्त कर सकते हो? श्री कृष्ण जी ने कहा कि यह संभव नहीं। संत रविदास जी ने कहा था कि मेरे पास ऐसा भक्ति मंत्र है जिससे जन्म-मरण सदा के लिए समाप्त हो जाता है। वह परमधाम प्राप्त होता है जिसके विषय में गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा है कि तत्वज्ञान तथा तत्वदर्शी संत की प्राप्ति के पश्चात् परमात्मा के उस परमधाम की खोज करनी चाहिए जहाँ जाने के पश्चात् साधक फिर लौटकर संसार में कभी नहीं आते। उसी एक परमात्मा की भक्ति करो। मीराबाई ने कहा कि हे भगवान श्री कृष्ण जी! संत जी कह रहे थे कि मैं जन्म-मरण समाप्त कर देता हूँ। अब मैं क्या करूं। मुझे तो पूर्ण मोक्ष की चाह है। श्री कृष्ण जी बोले कि मीरा! आप उस संत की शरण ग्रहण करो, अपना कल्याण कराओ। मुझे जितना ज्ञान था, वह बता दिया। मीरा अगले दिन मंदिर नहीं गई। सीधी संत जी के पास अपनी नौकरानियों के साथ गई तथा दीक्षा लेने की इच्छा व्यक्त की तथा श्री कृष्ण जी से हुई वार्ता भी संत रविदास जी से साझा की। उस समय छूआछात चरम पर थी। ठाकुर लोग अपने को सर्वोत्तम मानते थे। परमात्मा मान-बड़ाई वाले प्राणी को कभी नहीं मिलता। मीरा जी तुरंत रविदास जी के पास गई और बोली, संत जी! मुझे दीक्षा देकर मेरा कल्याण करो। संत रविदास जी ने बताया कि बेटी ! मैं चमार जाति से हूँ। आप ठाकुरों की बेटी हो। आपके समाज के लोग आपको बुरा-भला कहेंगे। जाति से बाहर कर देंगे। पहले आप विचार कर लें। मीराबाई अधिकारी आत्मा थी। परमात्मा के लिए मर-मिटने के लिए सदा तत्पर रहती थी। बोली, संत जी! आप मेरे पिता, मैं आपकी बेटी। मुझे दीक्षा दो। भाड़ में पड़ो समाज। कल को  जब मैं अनेकों प्रकार की योनियों में भटक कर नर्क  भोगूगीं , तब यह ठाकुर समाज मेरा क्या बचाव करेगा? 

मीराबाई ने गुरु पर अटूट विश्वास किया और निर्गुण भक्ति की जिसे आज मीरा  की ख्याति देश विदेश में फैली हुई है

श्री कृष्ण जी के मंदिर में मीराबाई पूजा करने जाती थीं क्योंकि वह श्री कृष्ण को अपने पति के रूप में अपने दिमाग में और अपने दिल में बसा चुकी थी । जब मीरा बाल्यावस्था मैं थी उस वक्त उसकी मां छत पर घी मथ रही थी और मीरा अपनी मां के साथ खेल रही थी तभी रास्ते से एक बारात दूल्हे राजा के साथ जा रही थी तभी मीरा ने देखा तो वह अपनी मां से कहने लगी कि मां इतने आदमी बैंड बाजे के साथ और यह एक आदमी घोड़ी पर बैठा जा रहा है यह कहां जा रहा है और कौन है तब उसकी माता कहती है कि बेटा यह दूल्हा है और यह बारात है यह गांव में बरात आई है इसी तरह बैठे तेरी भी बारात आएगी एक दिन तभी मीरा  कहती है कि अगर मेरी बारात आएगी तो मेरा दूल्हा कैसा होगा एक बार उसकी मां इस बात को इग्नोर कर देती है मगर मीरा फिर पूछती है अब सोचने लगती है अब मैं क्या उत्तर दु । सामने मंदिर में जो घर में पूजा घर होता है वहां गिरिधर नागर अर्थात कृष्ण भगवान की तस्वीर रखी थी उसकी मां ने इशारा करते हुए कहा कि बेटा तुम्हारा दूल्हा ऐसा होगा जैसे गिरधर नागर इतना सुंदर तब मीरा ने बाल्यावस्था से ही गिरधर नागर को अपना पति मान लिया था और हमेशा उनको अपना पति के रूप मैं ही उनकी पूजा की लेकिन जब गुरु रविदास जी महाराज से भेंट हुई तब उन्हें आध्यात्मिक ज्ञान हुआ और उन्होंने आध्यात्मिक गुरु सतगुरु रविदास जी महाराज को बनाया।

           जय गुरु रविदास ।। जयगुरु समन दास।।

                   *Abhay das ji Deoband*

गुरुवार, 21 अक्टूबर 2021

मिलत पिआरे प्राण नाथु कवन भगति ते।।

 ।।मिलत पिआरे प्राण नाथु कवन भगति ते।।

                 ।।राग मल्हार।।



मैंने पहले भी कहा था कि, गुरु रविदास जी महाराज जन्मजात परिपूर्ण सन्त, गुरु, सर्वोच्च आध्यात्म के केंद्र हुए हैं, जिन का धरती के ऊपर कोई भी साम्य नहीं रखता है। जिन व्याख्याकारों ने गुरु रविदास जी को साधक के रूप में चित्रित कर के संबोधित करते हुए शब्दों की व्याख्या की है, उन्होंने गुरु जी के कद को घटाने का ही काम किया गया है। गुरु जी ने, सांसारिक कमजोरियों के भंडार मनुष्य की मुक्ति के लिए, आदपुरुष से अरजोई करते हुए, उस के पास जीव जगत और मानव के कल्याणार्थ वकालत की है। वे धरती के ऊपर आदिपुरुष के भेजे गए सम्पूर्ण अवतार थे, जिन्होंने ब्राह्मणों के आतंक से केवल भारत के मूलनिवासियों को ही नहीं, बल्कि समूचे विश्व के लोगों को मुक्त कराने के लिए अपने आप को अनेकों तसीहे सहन करने के लिए प्रस्तुत किया था। गुरु जी ने शांतिपूर्ण तरीके से ब्राह्मणों को सत्य को समझने के लिए प्रेरित किया मगर भूले भटके ये लोग सत्य को नहीं समझ सके और गुरु जी को अपना दुश्मन मानते रहे। ब्राह्मणों की नींव ही छलकपट की दहलीज पर टिकी हुई है, बेईमानी इन की रग रग में रच चुकी है, इन की सफेद रंग की धोती, चंदन के तिलक और शंख केवल मात्र पापों को छुपाने के मूलमंत्र ही हैं, जिन का शिकार मूलनिवासी होते आए हैं। गुरु रविदास जी महाराज ने, जो कुछ किया वह ब्राह्मणों के ठीक विपरीत किया और समझाने का प्रयास किया है, कि आप पथभ्रष्ट ब्राह्मण हो मगर इन लोगों ने गुरु जी के सुकृत्यों को हमेशा ही विपरीत और ऋणात्मक ही लिया। गुरु जी ने जिस सिला के ऊपर रैदास और जगजीवन दास चमड़े के जूते बनाते हैं, उसी को गंगा में तैराया था, जब कि ब्राह्मणों ने अपने पवित्र पत्थर के देवता तारने का ढोंग रचा मगर असफल रहे और वे गंगा में डूब गए थे, गुरु जी ब्राह्मणों के प्रदूषित जल से नहीं नहाते थे, इसीलिये वे ब्राह्मणों से ऊपर गंगा स्नान करते थे, मगर जब ब्राह्मणों ने राजा के पास झूठा पर्चा कटवाया और कहा, कि महाराज, रविदास हम से ऊपर नहाता है और पानी को गंदा करता है, जिस का न्याय किया जाए, मगर जब ब्राह्मण राजा को गंगा तट पर ले गए और पूछा कि रविदास कहाँ स्नान करते हैं? ब्राह्मणों ने जिस स्थान को बताया था, वहां से तो गंगा ही विपरीत दिशा में वह रही थी। जब संत मीराबाई गुरु जी की शिष्या बन गई, तब उस के पीयर और सुसराल वालों ने गुरु जी को घात रख कर, सतसंग करने के बहाने चितौड़गढ़ महल में बुलाया और अपने काले कंबलों में छुरे, तलवारें ले कर पंडाल में बैठ गए थे, जब गुरु जी ने शब्द कीर्तन शुरू किया और उन के शब्दों की धुन उन छली हत्यारों, पापियों के अंतःकरण को चीरने लगी, तो वे सभी मंत्रमुग्ध हो गए और उन के बरछे, तलवारें आत्मविस्मृत अवस्था में धरती के ऊपर गिर पड़े, जिस से उन के समस्त पाप कर्म जगजाहिर हो गए। जगन्नाथपुरी में ब्राह्मण पंडे पुजारी भीलों के चढ़ावे तो डकार जाते थे, लेकिन उन्हें कथा और आरती सुनने नहीं देते थे, जिस अन्याय को दूर करने के लिए गुरु जी खुद वहां गए। जब उन्हें भीलों के साथ जगन्नाथ के मंदिर से निकाल दिया गया था, तब गुरु जी ने, मन्दिर के दूसरी ओर मुंह कर के अछूत भीलों के साथ सस्वर आरती गाई थी। जब उन की आंखें खुलीं तो जगन्नाथ की मूर्ति उन के सामने थी, फिर ऐसे परिपूर्ण गुरु को संबोधित कर के अर्थ निकालना सूर्य को दीपक दिखाना ही है। गुरु रविदास जी ने इस शब्द में साधक को फरमाया है कि, हे भाई! प्राणनाथ अर्थात आदपुरुष किस प्रकार मिल सकते हैं:---

मिलत पिआरे प्राण नाथु कवन भगति ते।।

साध सँगति पाई परम गते।।रहाउ।।

गुरु रविदास जी महाराज संगत को पूछते हैं, कि प्राणों से प्रिय नाथ अर्थात आदपुरुष मनुष्य को किस भक्ति से मिल सकते हैं? गुरु रविदास जी महाराज खुद ही साध सँगत को उतर देते हुए फरमाते हैं, कि साध संगत के बीच रह कर ही, हम परमपिता परमेश्वर को प्राप्त कर सकते हैं, अर्थात आदपुरुष को प्राप्त करने के लिए केवल साध सँगत की ही जरुरत है।

मैले कपरे कहां लउ धोवउ।।

आवैगी नींद कहां लगु सोवउ।।१।।

गुरु रविदास जी फरमाते हैं कि, मैले कपड़े पहन कर नींद कहां आती है और कोई कैसे सो सकता है? इसलिए मैले कुचैले कपड़ों को कहां धोया जा सकता है? अर्थात गुरु रविदास जी महाराज, प्रिय साध संगत को फरमाते हैं, कि जिस प्रकार ज्योतिर्मंडल में चलने वाली वायु से कपड़े गंदे हो जाते हैं और उस की दुर्गंध के बीच मनुष्य सो भी नहीं पाते हैं, वैसे ही काम, क्रोध, मोह, लोभ, अहंकार और माया के प्रदूषण से आत्मा रूपी कपड़ा गंदा हो जाता है और उस गंदगी के कारण मनुष्य सुख चैन की जिंदगी नहीं गुजार सकता है। उस का अंतःकरण अपवित्र हो जाता है और संसारिक बन्धनों में पड़ कर अज्ञानता के बीच ही भटकता फिरता रहता है, यदि उसे साध संगत नहीं मिलती है, तो वह आजीवन इसी मूर्खता की गंदगी में पड़ा रहता है।

जोई जोई जोरिउ सोई सोई फाटिउ।।

झूठे वनजि उठि ही गईं हाटिउ।।२।।

गुरु रविदास जी महाराज अपने अनुभवों को व्यक्त करते हुए फरमाते हैं, कि हे साध संगत जी! आप के मिलने से पहले जो जो हमने, काम, क्रोध, मोह, लोभ, अहंकार और माया के कारण जोड़ जोड़ कर संग्रह किया था, वह सब कुछ आप के मिलने पर वैसे ही बर्बाद हो गया जिस प्रकार पुराने कपड़े फट जाते हैं। जो जो झूठा व्यापार आप के मिलने से पहले किया था, उस का सारा ही बाजार बर्बाद हो गया है अर्थात ज्योतिर्विज्ञान ही संगत के मिलने पर ही प्राप्त हो सका है और मन के अंदर पांचों विकारों के झूठ के बाजार बंद हो गए हैं।

कहु रविदास भइउ जब लेखिउ।।

जोई जोई कीनो सोई सोई देखिउ।।३।। 

गुरु रविदास जी महाराज फरमाते हैं, कि जीवन के अंत में जब अच्छे और बुरे कर्मों का लेखा जोखा होता है, उस समय ही ज्ञात होता है कि जीवन में जो जो कर्म किए हैं, वही उस समय दिखाई देते हैं। इसीलिए गुरु महाराज समझाते हैं कि, साध संगत के बीच रह कर ही ज्योतिर्ज्ञान की प्राप्ति होती है और उस से पहले के कर्मों की यदि पड़ताल की जाए, तो स्पष्ट हो जाता है, कि बुरे कर्मों का लेखा जोखा समाप्त हो गया है, यह सब कुछ साध संगत की बदौलत ही ऐसा होता है।

शब्दार्थ:--- प्राणनाथु- श्वासों के मालिक, आदिपुरुष। ते-से। परम गते-चरम सीमा, अध्यात्म की उच्चतम अवस्था। मेले कपरे-गंदे कपड़े, पांच विकारों से मलिन आत्मा। कहा लउ-कब तक। नींद-निंद्रा, अज्ञानता की नींद। फाटिउ-फटा हुआ, दूर हो जाना। झूठे वनजि-झूठ का व्यापार, बुरे कर्मों का व्यापार। उठि ही गई-बर्बाद हो गई। हाटिउ-बाजार। भयउ-होता है।

।। जीवन चार दिन का मेला रे।।

      ।। जीवन चार दिन का मेला रे।।

गुरु रविदास जी महाराज किसी जाति विशेष या धर्म विशेष के समर्थक नहीं थे, उन्होंने मानव निर्मित धर्मों, जातियों की बुराइयों का तर्कसंगत पोस्टमार्टम किया हुआ है। जिस में उन्होंने सभी प्रकार के आडंबरों, पाखंडों का खंडन किया है। भोले भाले लोगों को लूटने वाले ठगों, लुटेरों का बुरी तरह पर्दाफाश किया हुआ है। गुरुजी जीवन की वास्तविकता और सत्य को प्रकट करते हुए इस शब्द में फरमाते हैं, कि मनुष्य ही, मनुष्य को लूट कर, ठग कर बड़ी निर्दयतापूर्वक शोषण करता है, जबकि यह जीवन क्षणिक है।

जीवन चारि दिन का मेला रे।

बामन झूठा, वेद झूठा, झूठा ब्रह्म अकेला रे।।


गुरु रविदास जी महाराज फरमाते हैं, कि यह जीवन एक मेंला है, जो सिर्फ चार दिन का है और उस के बाद यह मेला अर्थात मनुष्य का मिलन समाप्त हो जाता है। ब्राह्मणों ने जो यह वेदों, पुराणों में सच झूठ लिख कर के संगत को मूर्ख बना कर लूट मचाई हुई है, उस के प्रति संगत को समझाया है कि, पंडित वेद और ब्रह्मा के नाम पर घड़ा गया ब्रह्म शब्द भी झूठ है।

मंदिर भीतर मूरति बैठी, पूजती बाहर चेला रे। लड्डू भोग चढ़ावति, मूरति के ढिग केला रे।।

गुरु रविदास जी महाराज फरमाते हैं, कि संगत को लूटने के लिए मंदिरों का निर्माण किया गया है और उन के बीच पत्थर की मूर्तियां स्थापित की गईं हैं, जिन की पुजारी खुद साफ, सफाई ना कर के अपने गुलाम चेलों से ही साफ सफाई और पूजा आदि का काम लेते हैं। लोग मूर्ति को लड्डुओं, प्रसाद आदि का भोग चढ़ाते हैं।मूर्तियों के पास सेव, संतरे केले आदि अर्पित करते हैं।

पत्थर मूरति कछु न खाति, खाते बामण चला रे।

जनता लुटती बामन सारे, प्रभु देति न धेला रे।।

गुरु रविदास जी महाराज ढोंगियों, पाखंडियों के पाखंडों, आडंबरों, कपटों को उजागर करते हुए, फरमाते हैं, कि मंदिर में स्थापित पत्थर की मूर्ति कुछ भी नहीं खाती है और केवल उस मंदिर के बीच बैठे गुरु और चेला ही खाते हैं। यह ब्राह्मण छल कपट कर के लोगों को ठगते हैं, जिस से जनता लूटी लूटी जा रही है, और परमपिता परमेश्वर को धेला अर्थात खोटा सिक्का तक नहीं देते हैं। 

पाप पुण्य, पुनर्जन्म का, बामन दीना खेला रे। सवर्ग नरक बैकुंठ पधारो, गुरु शिष्य चेला रे।।

गुरु रविदास जी महाराज फरमाते हैं, कि ब्राह्मण तिलकधारियों ने, मनुष्य को पुनर्जन्म और पाप पुण्य के जाल में फंसा हुआ है, स्वर्ग नरक का मानसिक आतंक फैला कर के लोगों को डर से भयभीत किया हुआ है। स्वर्ग में भेजने के नाम पर गुरु और चेला लोगों को लूटते हैं और संगत को इस खेल के बीच उलझाया हुआ है।

जितना दान देवोगे, उतना निकसे तेला रे।

बामन जात बहकाए, जंह तँह मचे बबेला रे।।

तिलकधारी ब्राह्मणों ने लोगों को इस कदर अपनी ओर आकर्षित किया हुआ है, कि लोग उन के जाल में मच्छलियों की तरह फंस जाते हैं। दान लेने के लिए, लोगों को कहते हैं कि, जितना आप देंगे, उतना ही आप को प्रभु देंगे। जितना बीज कोहलू में डालोगे उतना ही तेल निकलेगा। मानसिक रूप से प्रताड़ित करते हुए तर्क देते हुए कहते हैं, जितना कोई बांटता है, उतना ही उसे मिलता है। ये ब्राह्मण जनता को लूटने के लिए बहकाते और फुसलाते हैं, अगर कोई उन का विरोध करे तो उस के खिलाफ जगह जगह पर बवाल पैदा करते हैं।

छोड़ि बामन अ संग मेरे, रविदास अकेला रे। 

गुरु रविदास जी महाराज, सर्वश्रेष्ठ, सर्वोच्च इस ज्योतिर्मंडल के ज्योतिर्ज्ञान के सर्वोत्तम अकेले ज्योतिरपुंज गुरु हुए हैं। वे इन सब आडंबरों और पाखंडों का खंडन करते हुए, जनता को, संगत को समझाते हैं, कि हे मेरी प्रिय सँगते! इन ब्राह्मणों का साथ छोड़ कर के, मेरे पास आ जाओ, मैं अकेला हूं और मैं आप को इस जीवन को सुखी बनाने का मंत्र बताता हूं।

शब्दार्थ:-- चारि दिन-क्षणिक, कुछ समय का। मेला-मिलन, इकठ्ठ। बामन-यूरेशियन लोग। ब्रह्म-ब्रह्मा का वंशज, ब्रह्मा से ही ब्रह्म, ब्रह्मज्ञान, ब्रह्मपुत्र, ब्रह्मलीन, ब्राह्मण, ब्रह्मजोत आदि शब्द घड़े गए हैं, जो काल्पनिक यूरेशियन अति मानव के नाम पर शब्द शब्दकोश में लिखे गए हैं। चेला-पुजारी का शिष्य। ढिग-पास, मूर्ति के मुंह के समीप। धेला-पुराना सिक्का जो अब तुच्छ है। खेला-खेल। बैकुंठ-स्वर्ग का झांसा। निकसे-निकलना। तेला-तेल। मचे-शोर पड़ना। बहकाए-फुसलाना। बबेला-बबाल, बात का बतंगड़।

नोट:---इस शब्द को जनश्रुति के आधार पर लिखा गया है, क्योंकि गुरु जी के महानिर्वाण के बाद उन का सम्पूर्ण साहित्य ब्राह्मणों ने जला दिया था, जिस के कारण अनुयायियों ने अपने कंठस्थ शब्दों को अपनी भाषा में लिखा है। इस शब्द की भाषा शैली गुरु रविदास जी की भाषा शैली से मेल नहीं खाती हैl


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