अमेरिका में भारतीय मूल के लोगों में ब्राह्मणों की संख्या लगभग ३०% बताई जाती है। जबकि भारत में ब्राह्मणों की संख्या पाँच प्रतिशत से कम होने का अनुमान है । इससे प्रतीत होता है कि भारत से जाने वाले लोगों में ब्राह्मणो का अनुपात काफी है। इसमें पलायन व विकसित देशो में जाकर रहना दोनो कारण शामिल हैं .
ब्राह्मणो के भारत से पलायन का कारण है भारत में ब्राह्मण विरुद्ध राजनैतिक माहौल और कुछ स्थितियों में ब्राह्मणो पर सीधा हमला। काफी कश्मीरी पंडितों ने विदेशों में शरण ली थी , जो बेचारे उतने सक्षम नहीं थे वो आज भी अपने देश में ही शरणार्थीयों की तरह से रह रहे हैं। उनकी स्थिति बँटवारे के बाद पाकिस्तान में फँसे हिन्दुओ जैसी है , गरीब के लिए तो पलायन भी कठिन होता है।
कश्मीर के अतिरिक्त भी भारत में अलग अलग हिस्सों में ब्राह्मणों पर सीधे हमले हुए हैं। और कुछ नहीं तो ब्राह्मण विरोधी राजनीति एक चलन बन गया था। तमिलनाडु से बहुत ब्राह्मणो ने पलायन किया है। आंध्र प्रदेश से ब्राह्मणों के पलायन की घटनाएँ सुनने में आई हैं।
भारत के हर प्रदेश से पलायन नहीं हुआ है . पलायन के प्रदेश वही हैं जहाँ संख्याबल कम है।
तरह तरह से ब्राह्मण विरोध खुलकर व्यक्त किया जाता है रहा है , किसी अन्य जाति का ऐसा विरोध जातिवाद की श्रेणी में आता है। पर जाति के आधार पर ही ब्राह्मण विरोध तो जातिवाद का ही विरोध है।
ये देखिए तमिलनाडु में छ्पा एक कार्टून . एक सूअर को जनेऊ पहनाकर बनाया गया ये कार्टून ब्राह्मणों पर भड़ास निकालने का प्रयास है ।
ब्राह्मण: हमारे लिए तो वाराह अवतार पूजनीय है इसमें क्या अपमान? 🙏🙏🙏 इसको बनाने वाले के मन मे गुबार को देखकर तो लगता कि बेचारा बहुत दुखी है .
इस कार्टून को देखें। ब्राह्मण की चोटी एक सर्प की भाँति गरीब को डस रही है। और हाथ में मनु और वेद लिये हुए है.
यहाँ पर प्रश्न है कि क्या इन पुस्तकों को केवल ब्राह्मण मानते हैं ?
- यदि इन पुस्तकों को केवल ब्राह्मण मानते हैं तो सिद्ध हुआ कि वे समाज को प्रभावित ही नहीं कर पा रहे। और इस स्थिति में वे किसी के विरुद्ध इनका प्रयोग कैसे करेंगे।
- यदि इन पुस्तकों को समाज के अन्य वर्ग भी मानते हैं तो फिर इनको ब्राह्मणो से जोड़ने का क्या प्रयोजन ?
आँकड़े ये कहते है कि दलितों को छोड़कर अन्य सभी जातियों में ब्राह्मण सबसे अधिक गरीब हैं।
वास्तविकता ये है कि कुछ चुनिन्दा ब्राह्मणो को छोड़कर भारत के सभी ब्राह्मण सुदामा की तरह दरिद्र हैं। जो स्वयं ही दरिद्र है वो किसी को किस प्रकार की प्रताड़ना दे सकता है ? किसी प्रकार का झगड़ा उसके बस की बात नहीं . इक्का दुक्का कहीं मंदिर में जाने रोकने जो घटनाएँ होती थी वो पुरानी हो गई हैं।
लाक्षागृह काण्ड के बाद जब पाण्डव एक गाँव में जाकर रुके तो एक ब्राह्मण का आश्रय मिला। उस गाँव के लोग बकासुर नाम के राक्षस के यहाँ बारी बारी से जाते थे और जो भी जाता था बकासुर उन्हें खा जाता था। ये ब्राह्मण इतना शक्तिशाली तो नहीं था कि उसे ना जाना पड़े ना ही ऐसा था की गाँव वाले इतना सम्मान करते हो कि उसे ना जाने दें। इसके स्थान पर भीम ने जाकर बकासुर वध किया था , लेकिन गाँव वालो के ऊपर उसका कोई विशेष अधिकार नहीं था।
हम प्राचीन कथाओं के ऋषियों को ब्राह्मण कहकर उनको जाति में बाँटते रहते जबकि वो जाति रहित थे। उस समय जातियाँ तो नहीं थी लेकिन पैतृक व्यवसाय दो देखा जा सकता है। महाभारत लिखने वाले वेद व्यास की माता मछुहारे की बेटी थी , बताया जाता है कि रामायण लिखने वाले वाल्मीकि एक समय डाकू थे , फिर भी समाज ने उन्हें इतना सम्मान दिया। महर्षि विश्वामित्र एक राजा से ऋषि बने।
नीचे दिए इस चित्र को देखिए क्या लिखा है ?
"ब्राह्मणिक पितृसत्ता का दमन कर दो"
अब ब्राह्मणिक पितृसत्ता क्या बला है भाई ? यदि केवल पितृसत्ता की बात हो तो पितृसत्ता पूरे विश्व में रही है। अब भारत छोड़कर विश्व भर की समस्याओं का दोष ब्राह्मण लेंगे ?
जातिवादी हिंसा में ना शामिल होते हुए भी ब्राह्मण ही दोष लेगा
भारत की हर समस्या का दोष ब्राह्मण को देना बड़ा सरल है , इससे कोई राजनैतिक नुकसान होने की सम्भावना नही दिखती । किसी प्रताडन में यादव शामिल हो , जाट शामिल हो , ठाकुर शामिल हो , या ब्राह्मण शामिल हो लेकिन दोष सभी का ब्राह्मण को ही है।
दलितों पर अत्याचारों की घटनाओं का विश्लेषण करके पता चलता है कि अधिकांश घटनाओं में ब्राह्मण एक पक्ष होता ही नहीं है। इस पृष्ठ पर भारत के जातीय दंगो या झगड़ो की सूची है। इसमें ब्राह्मणों का नाम उन्ही स्थानों पर आता है जहाँ वो मारे गए।
भारत में जाति से संबंधित हिंसा - विकिपीडिया
दलित को किसी ने भी मारा हो दोष तो ब्राह्मणो को दिया जाना है तो क्या हर्ज कि फिल्म में नाम बदलकर ब्राह्मण कर दिया जाए। जिसको ये ही नहीं जानना है कि उस पर हो रहा अत्याचार आ कहाँ से रहा है , क्या उस पर अत्याचार घटेगा ?
इस फिल्म में जो दिखाया गया है वो भारत में हो तो रहा है , सत्य घटना पर आधारित भी है फिल्म , बदलाव बस इतना है कि किया किसी और ने और फिल्म ने दिखाया ब्राह्मण।
गालियाँ और भड़ास निकलना सामान्य है
राजनैतिक स्तर पर ब्राह्मणों को जमकर गालियाँ दी जाती है जो जिसको समाज सेवा के काम गिना जाता है ।
कालिजों में अक्सर कुछ जातिवादी ग्रुप बन जाते हैं जिनका काम ब्राह्मण छात्रों को गालियाँ देना होता है। मेरे कालिज के कुछ जातिवादी ग्रुप अपनी मंत्रणाएँ करते थे और उन मंत्रणाओं मे जिन्हे गालियॉं दी जाती उनमे मैं भी था। कारण ? मेरा ब्राह्मण होना। कालिज जैसे स्थान में जहाँ बड़े बड़े जात धर्म छोड़ देतें हैं वहाँ ये खुद को अलग थलग करके फिर दूसरों को जातिवादी भी बताते हैं। संयोग से उन मंत्रणाओं में जाने वाले सभी लोगों को ये बाते पसंद नहीं आती थी , उन्ही कुछ के कारण मुझे इस घृणा का पता भी चला था।
घृणा के कारण दलित नेतृत्व से सद्भाव नदारद
समाज मे ये घृणा इतनी अधिक हो चुकी थी कि दलों को ब्राह्मणों से किसी राजनैतिक लाभ की भी इच्छा नहीं थी। २००७ के चुनाव के पूर्व स्वयं सुश्री मायावती जी को ये विश्वास नहीं था कि ब्राह्मण उनको वोट दे सकते हैं। उनका मष्तिस्क ये कल्पना किये हुए था कि जितना गुबार उनके मन में ब्राह्मणो के प्रति है, ब्राह्मण उससे कहीं अधिक नफरत उनसे करते हैं। लेकिन जब उन्होंने अपना मन बदला तो परिणाम सबने देखा। जो पेड़ आपको छाया दे सकता है आप आँख मूँदकर काटने में लगे हो।
आज किसी भी दलित नेतृत्व को ब्राह्मण के समर्थन से भय लगता है , नफरत के आधार तो समर्थन प्राप्त हुआ वो कहीं चला ही ना जाए।
ये लिखते तो है जाति है कि जाती नहीं , लेकिन जाति के ना जाने की सबसे बड़ी बाधा वो स्वयं बने हैं। अरे आपको जाती समाप्त करनी होती तो लोग अंतर्जातीय विवाह कर रहे हैं उनसे मिलकर उनको प्राहोत्साहन देते।
प्रदेश या राष्ट्रिय स्तर पर कोई ब्राह्मण दल नहीं
कोई बड़ा राजनैतिक दल नहीं जो केवल ब्राह्मणों का हो। कोई बड़ा नेता नहीं जो खुलकर खुद को ब्राह्मण नेता कहता हो। जबकि अन्य सभी समुदायों के नेता भारत में हैं , फिर भी ब्राह्मण पर प्रथम हमला होता है।
उत्तर प्रदेश में यादव 10 प्रतिशत हैं लेकिन उनका अपना एक अलग राजनैतिक दल है , ब्राह्मण भी 10 प्रतिशत हैं उनका अलग राजनैतिक दल नही है . उत्तराखण्ड में ब्राह्मणो का प्रतिशत 30 है , फिर भी अलग दल नही . पाँच प्रतिशत जाटो की भी पार्टी है . हर प्रदेश में उसकी जातियोंं के अनुसार पार्टियाँ हैं कहीँ ठाकुर , कहीँ मराठा , कहीँ राजपूत और ये सभी बडी सहजता से जातिवाद का दोष ब्राह्मणो पर मढते रहते हैं .
दलितों के अंदर की जातियाँ क्योँ शेष हैं ?
मान लेते हैं कि जातिगत विवाह में ब्राह्मण आड़े आते हैं। तो क्या ब्राह्मण दलित और वाल्मीकि के विवाह को भी मना करते हैं ? कितने जाटव हैं जिन्होंने किसी बाल्मीकि से विवाह किया हो ? इसके उलट हजारों ब्राह्मणों के उदाहरण हैं जिन्होंने दलितों से विवाह किया है. डाक्टर भीमराव आंबेडकर जी की पत्नी सविता ब्राह्मण थी , राम विलास पासवान जी की पत्नी ब्राह्मण हैं ? लेकिन दलित वाल्मीकि विवाह के कितने उदाहरण आप दे सकते हैं ? दोष देना सरल है लेकिन कर के भी दिखाना चाहिए। दलितों के अंदर की जतियाँ क्यों समाप्त नहीं हो जा रही हैं , उसे कौन रोक रहा है ?
भारत में आज जो लोग जातिवाद तोड़ रहे हैं उनमे ब्राह्मण ही सबसे अग्रणी है। अंतर्जातीय विवाह करने वालों में ब्राह्मणों का प्रतिशत उनकी आबादी की तुलना में सबसे अधिक है।
इस पलायन के लाभ हानि।
व्यक्तिगत तौर मैंने बड़े जीवनकाल तक भारत से बाहर रहने की नहीं सोची , भ्रमण अवश्य किया। कालिज के समय तक तो मेरा मानना था कि इससे भारत का नुकसान होता है। फिर मैं बहुत भारत प्रेमी रहा हूँ , इसलिए ये विचार नहीं आते थे कि विदेशों में जाकर रहूँ। बाद में ज्यो ज्यो व्यावसायिक अनुभव हुआ तो लाभ हानि के बहुत से पक्ष दिखाई देने लगे.
भारत के समाज लम्बे समय तक व्यवसाय विरुद्ध माहौल भी रहा है। इस परिस्थियों में भारतीय युवा के समक्ष एक ही विकल्प होता था , सरकारी नौकरी। क्योंकि निजी क्षेत्र तो भारत में विकसित हो नहीं पाया। निजी क्षेत्र विकसित नहीं होगा तो करदाता नहीं होंगे। करदाता नहीं होंगे तो सरकारी नौकरियाँ कहाँ से आएँगी। निजीक्षेत्र बढ़ता है तो सरकारी नौकरियाँ स्वयं ही बढ़ती है। यदि चालीस वर्ष पूर्व को प्रतिभा पलायन ना करके भारत में रहे तो उसे यहाँ पर उतने अवसर ही नहीं होंगे। वो प्रतिभा यहाँ रहकर समाज को कुछ नहीं दे पायेगी। बाहर जाकर वहाँ अपना विकास करके और उस धन का कुछ भाग अपने परिवारों को भारत में भेजकर थोड़ा ही सही , अर्थव्यस्था में योगदान तो दिया। फिर वहाँ काम करने वाले लोगों की छवि के कारण ही भारत में IT सेक्टर में काम आया। जिससे यहाँ रोजगार बढ़ें। अब अमरीका में भारतीयों की संख्या एक प्रतिशत है , कनाडा में पाँच प्रतिशत है , और इंग्लॅण्ड में भी पाँच प्रतिशत के आसपास है। ये संख्याएँ इतनी हैं कि राजनीति को भी थोड़ा बहुत प्रभावित कर पाए। तो एक प्रकार से इस पलायन से भारत को लाभ ही पहुँचा है।विदेशी भारतीयो के कारण भारत में निवेश आता है , भारत के राजनैतिक सम्बंध सुधरते हैं .
भारत की जनसँख्या काफी है , उसकी तुलना में विदेश जाने वाले लोगों की कुल संख्या नगण्य है। भारत के व्यवसाय के विरुद्ध माहौल में ये लोग भारत में कुछ ख़ास कर भी नहीं सकते थे। विदेशो में रहकर भी ब्राह्मण भारत और भारतीय संस्कृति का नाम ऊँचा ही करता है। भारत से पलायन करके भी मन में भारत ही बसा होता है।
भारतीय समाज सदैव परिवर्तन शील रहा है। समय समय पर प्रथाएँ पुरानी होती रही है और हमारा समाज उनको छोड़ता रहा है। समाज में जब परिवर्तन के लिए आंदोलन और क्रांतियाँ होती है तब कुछ समय के लिए जोश बहुत अधिक होता है उस दिशा में झुकाव थोड़ा अधिक हो जाता है। तब कोई नई बुराई जन्म ले रही है इस ओर किसी का ध्यान नही जाता . लेकिन समय के साथ वो ठीक भी हो जाता है। पिछली शताब्दी का ब्राह्मण विरोधी माहौल इसी अधिक झुकाव का परिणाम है। जो समय के साथ ठीक हो जायेगा।
उम्मीद करता हूँ कि जब ब्राह्मणों पर भड़ास निकाल लेने के बाद वो भड़ास शांत होगी तब भारत से जातिवाद भी समाप्त होगा।
© सन्दीप दीक्षित , सर्वाधिकार सुरक्षित।
इस प्रकार के अन्य रोचक उत्तर आप मेरे मञ्च विश्वशिरोमणि भारत पर देख सकते हैं। इस आलेख को उद्धृत करते हुए इस लेख की कड़ी/लिंक का भी विवरण दें।