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बुधवार, 18 अगस्त 2021

सुख सागर सुरतरु चिंतामणि

  जगत गुरु रविदास जी महाराज जब ब्राह्मणों के साथ में विचार गोष्ठी हो रही थी तब जगत गुरु रविदास जी महाराज ब्राह्मणों को इस वाणी के माध्यम से समझाते हैं और उस वक्त सभी ब्राह्मण सतगुरु रविदास जी महाराज के सानिध्य में आकर उनको अपना गुरु मान बैठे थे।आइए आप और हम भी समझते हैं इस बाणी की व्याख्या राम सिंह आदवंशी ने की है

        ।।सुख सागर सुरतरु चिंतामणि।।

                             ।।राग सोरठ।।

ब्राह्मणों ने ऐसे ऐसे अविष्कार किये हुए हैं, कि जिन को सुन कर आदमी तो क्या आदपुरष भी सकते में पड़ जाते होंगे, क्योंकि इन लोगों ने चार चार मुखड़ों वाले आदमियों का खोज की हुई है, कोई शेषनाग की भी रचना की हुई है, जो अपने सारथी को पूर्ण संरक्षण देकर उस की रक्षा करता है। कोई बंदर के मुंह की तरह वानर रूप में ईजाद किया गया है, इसी तरह कई पेड़ भी ऐसे ही खोज डाले हैं, जिन को देव तरु कहा जाता है और कई ऐसी मणियाँ हैं, जो चिंताओं को नष्ट कर देती है, ऐसी देवियाँ भी है जो चिंताओं को खत्म कर देती है मगर उसके  बावजूद भी लोग सुखी नहीं रहते हैं, इन्हीं अलौकिक शक्तियों का पोस्टमार्टम कर के गुरु रविदास जी महाराज ने इस शब्द में फरमाया है:---

सुख सागर सुरतरु चिंतामणि।

कामधेनु बसि जा के।।

चारि पदारथ असतट दसा सिधि।

नव निधि करतल ता के ।।१।।

गुरु रविदास जी महाराज परमपिता परमेश्वर आदपुरुष की सर्वोच्चता का वर्णन करते हुए फरमाते हैं, कि हे ब्राह्मण! जिस सुख के सागर अर्थात आदपुरुष के वश में आप के स्वर्ग की कामधेनु गाय और चिंताओं को नष्ट करने वाले चिंतामणि जैसे पत्थर हैं, कल्प वृक्ष जैसे देव वृक्ष आप की इच्छाओं को पूरे करने वाले हैं, चारों पदार्थ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, नौ निधियां, और अठारह सिद्धियां आदि ये शक्तियाँ काम करतीं हैं, तुम इन का यशोगान करते हैं और उन की ही भक्ति और साधना करते हैं, परंतु जिस आदपुरष ने इन को बनाया है, उस की भक्ति आप लोग क्यों नहीं करते हो?

हरि हरि हरि न जपि रसना।।

अवर सभी तिआगि वचन रचना।।१।।रहाउ।।

गुरु रविदास जी महाराज फरमाते हैं, कि है महा बुद्धिमान ब्राह्मण! तू अपनी जिह्वा से हरि को पाने के लिए सोहम का जाप क्यों नहीं करता है? क्यों आदमी द्वारा निर्मित वेदों, पुराणों आदि धर्म ग्रंथों को त्याग कर केवल आदपुरुष का ही सिमरन क्यों नहीं करता है?

नाना खिआन पुरान वेद विधि।

चौउतीस अखर माहीं।। 

गुरु रविदास जी महाराज ब्राह्मणों को समझाते हुए फरमाते हैं, कि हे ब्राह्मणों! आप कल्पित विधाताओं के वेदों पुराणों के कल्पित विचारों के ऊपर क्यों विश्वास करते हो? देवनागरी लिपि के चौतीस अक्षरों में वेद व्यास आदि लेखकों द्वारा रचे गए परोपकारी साहित्य का गहन अध्ययन कर के, आपस में विचार-विमर्श करके शाश्वत सत्य को क्यों नहीं समझते हो? हरि के सिमरन के बराबर ये सभी रचनाएं व्यर्थ हैं, फिर भी तू हरि का सिमरन क्यों नहीं करता है? कल्पित साहित्य को आप क्यों महत्व दे कर के उन में लिखे गए धार्मिक विचारों को क्यों अपनी पूजा का साधन मानते हो।

बिआस विचारि कहिउ परमारथ।

राम नाम सरि नाहीं।।२।।

गुरु रविदास जी महाराज फरमाते हैं, कि जिस ब्यास ने, वेदों, पुराणों में परोपकारी साहित्य की रचना की है, वह तो राम नाम के समान नहीं है, फिर तू हे ब्राह्मण! इस पर विचार क्यों नहीं करता है? कि ये मनुष्य द्वारा रचित साहित्य अधूरा ज्ञान का भंडार है और निराकार ईश्वर का स्मरण क्यों नहीं करता है?

सहज समाधि उपाधि रहत फुनि।

बडै भागि लिव लागी।। 

गुरु रविदास जी महाराज ब्राह्मण को समझाते हुए बताते हैं, सरल समाधि लगा कर के मन में तनिक भी दुख नहीं रहते हैं अर्थात व्यक्ति सुखी रहता है, हम तो बड़े सौभाग्यशाली हैं कि हमारी लग्न आदपुरष से लगी हुई है, तूँ भी मॉनव कृत कल्पित ग्रथों के अज्ञान से मुक्त हो कर आदपुरष से ही लिव लगाओ, तभी सुखी जीवन जी सकते हो।

कहि रविदास परगासु हिरदै धरि।

जनम मरण भै भागी।।३।।४।।

गुरु रविदास जी महाराज जनमानस को समझाते हुए फरमाते हैं, कि जिस के हृदय में परमपिता परमेश्वर अर्थात आदपुरुष का दिव्य ज्योतिर्ज्ञान प्रकाशमान हो जाता है और वह आदमी उस प्रकाश को हृदय में धारण कर लेता है, उस का जन्म मरण का डर भी खत्म हो जाता है अर्थात उस आदमी को ईश्वर के दर्शन हो जाते हैं, जिस से उसे मृत्यु का कोई भय नहीं सताता है।

शब्दार्थ :--- सुरतरु-देव तरु, कल्प वृक्ष, कल्पित वृक्ष जो बाधाओं को मिटाता है।चिंतामणि-चिंताओं को दूर करने वाली हिंदुओं की कल्पित मणी/पत्थर। कामधेनु-स्वर्ग में रहने वाली हिंदुओं की कल्पित गाय। चारि पदारथ-जीवन में प्रयोग होने वाले चारों पदार्थ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। असट दसा-अठारह। नव निद्धि-नौ खजाने। करतल-हथेलियां। जपहि-जपता है। रसना-रस लेने वाली अर्थात जिह्वा। वचन-कथन, विचार। रचना-लिखित, लेख। नाना-अनेकों। खिआन-प्रसंग, कथा। बिधि-विधाता। चउतीस-देवनागरी लिपि के चौतीस वर्ण। बिआस-व्यास महाऋषि। परमारथ-परोपकार, दूसरों का भला। सहज-सरल, स्वाभाविक। समाधि-एकाग्रता से आदपुरष का ध्यान लगाना। उपाधि-दुख, क्लेश। फुनि-दुबारा, पुनः। हिरदै धरि-मन में धारण करना।

व्याख्या ,रामसिंह आदवंशी।

अध्यक्ष।

विश्व आदधर्म मंडल।

अखिल भारतीय संत शिरोमणि रविदास मिशन

  अभय दास देवबंद।

शुक्रवार, 30 जुलाई 2021

सगल भवन के नाईका। इक खिन दरसु दिखाई जी

         ।।कूप भरियो जैसे दादरा।।

               ।।गौउड़ी पूर्वी।।

गुरु रविदास जी महाराज ने पिछले शब्द में,


(मैं राम नाम धन लादिया, विखु  लादी संसारी)

स्पष्ट कर दिया है, कि मैं ने अमूल्य राम नाम का धन अपनी गाड़ी में भरा हुआ है, बाकी सभी ने अपने छकड़े विष से ही भर रखे हैं। केवल मैं ही ज्योतिर्ज्ञान का परिपूर्ण अनुभवी व्यापारी हूं और जो जो लोग ईमानदार, सत्यनिष्ठ, जिज्ञासु हैं, आध्यात्मिक विचार रखते हैं, वही मेरा सामान खरीद कर सच्चा व्यापार कर सकते हैं, मैं उन को सच्चे व्यापार का भेद भी समझा सकता हूँ। गुरु महाराज ने देश विदेश में भ्रमण कर  के यह अनुभव किया था, कि सभी धर्मों के बफादार फरमाबरदार, नेतृत्व करने वाले खुद ही पथभ्रष्ट हैं, खुद ही अपने पिछलगुओं को दया के पुजारी नहीं बना सके, आए दिन ये हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, यहूदी, पारसी, आपस में खून खराबा करते रहते हैं, एक दूसरे का बड़ी बेदर्दी से कत्लेआम कर के, दूसरों को अपना गुलाम बनाने के लिए दिन रात अपनी क्रूर बादशाहत कायम करने के लिए लोगों का अंधाधुंध खून बहाते रहते हैं, फिर इन बादशाहों के देवताओं, अवतारों, पीरों, पैग़ंबरों ने इन लोगों को कैसी पढ़त पढ़ाई हुई है? एक देश का शासक दूसरे देश के जान माल को तबाह कर के, खून की नदियाँ बहा कर उस के धन दौलत को लूट कर ले जाते हैं, ये कैसे धर्म हैं?  गुरु रविदास जी ने अनुभव किया है कि:---

कूप भरियो जैसे दादिरा।

कछु देश विदेसु ना बूझ।।

ऐसो मेरा मनु बिखिआ बिमोहिआ।

कछु उआर पारू ना सूझ।।१।।

गुरु रविदास जी फरमाते हैं, कि हे परम पिता परमेश्वर! यह सारा संसार ही कुएं के मेंढकों की तरह भरा हुआ है और लोगों को काम, क्रोध, मोह, लोभ और अहंकार के अतिरिक्त कुछ भी दिखाई नहीं देता है। ये कुएं के मेंढक, कुएं को ही अपना संसार समझते हैं। कुएं के बाहर क्या क्या है ? इन्हें कोई पता नहीं चलता है। जब पानी बरसता है तो खूब टरटराते हैं, जब कुँए में पानी कम रह जाता है, तब अपना मुंह बंद कर लेते हैं। ऐसे ही देश विदेश के लोगों का हाल है, ये लोग भी विषय-विकारों में डूबे रहते हैं। काम, क्रोध, मोह, लोभ और अहंकार की धधकती हुई अग्नि में जलते रहते हैं। हे आदपुरष! आप की किसी को कोई याद नहीं आती है। इन को देख कर मेरा मन भी अस्थिर हो कर इन के प्रति मोहित हो रहा है, जिस प्रकार इन मेंडकों को कुएँ से बाहर कुछ दिखाई नहीं देता है, उसी तरह मुझ पर कुछ असर हो रहा है।

कुछ लोगों ने व्याख्या की हुई है कि गुरु रविदास जी अपने लिए फरमाते हैं कि, मैं अज्ञानी हूँ, मैं भी कुएँ के मेंडकों की तरह पांच विकारों के वशीभूत हो कर माया के चक्कर में फंस गया हूँ, मुझे आर पार अर्थ लोक परलोक नजर नहीं आ रहा है, ये कथन गुरु जी के ज्योतिर्ज्ञान के सामने तर्कसंगत नहीं लगता है, क्योंकि गुरु महाराज तो जन्मजात ही ज्योतिर्ज्ञानी थे, उन्होंने जन्म लेते समय ही भानी दाई की आंखों में रोशनी डाल कर अपनी शक्ति का लोहा मनवा लिया था, फिर कोई कैसे लिख सकता कि वे कुएँ के मेंडकों की तरह खुद को लिख रहे हैं, वे तो सांसारिक जीवों को परख कर फरमाते हैं कि हे आदपुरष! कहीं मैं भी इन भटके हुए लोगों को देख कर भटक ना जाऊं, इसलिए आप मुझे दर्शन देते रहो, ताकि मेरा आत्मबल बना रहे, मैं इन भटके हुए लोगों को सन्मार्ग पर लाता रहूं। 

बड़े दुख की बात है कि सभी व्याख्याकार गुरु जी को भगत लिखते आए हैं, जब कि विश्व में कोई भी गुरु, पीर, औलिया उन का कोई भी साम्य नहीं रखता, गुरु नानक देव जी भी गुरु रविदास जी महाराज के ही अनुयायी और शिष्य थे, तो फिर कोई कैसे गुरु जी को भगत लिख कर उन के सम्मान को आंच पहुंचा सकता। कोई कैसे उन को कुएँ के मेंढक के साथ तुलना कर सकते हैं। कोई भी इन लिखने वालों का विरोध भी नहीं करता है।

सगल भवन के नाईका।

इक खिन दरसु दिखाई जी।।१।।रहाउ।।

गुरु रविदास महाराज जी ने सारे धर्मों का गहन अध्ययन करने के उपरांत यह अनुभव किया था, कि किसी भी धर्म में कोई भी संपूर्ण गुरु नहीं है और ना ही किसी के पास ज्योतिर्ज्ञान है, कोई भी ऐसा गुरु नहीं है जो मेरा गुरु बनने लायक हो, इसलिए गुरु रविदास जी आदपुरष के पास प्रार्थना करते हैं कि हे प्रभ! आप ही सारी सृष्टि के नायक हो, आप ही मेरे गुरु हैं, मुझे आ कर दर्शन देकर सशक्त बना दो, आप के अतिरिक्त कोई भी मेरी ज्ञान की पिपासा को शांत नहीं कर सकता, इस से गुरु जी के ज्योतिर्ज्ञान के बारे में सिद्ध हो जाता है कि, धरती के ऊपर कोई ऐसा सम्पूर्ण गुरु नहीं था, जो उन को मार्गदर्शन कर सकता था।

गुरु रविदास जी महाराज आद पुरुष के पास संसार की दुर्दशा का वर्णन करते हुए फरमाते हैं कि इस सारी कायनात के मालिक आदपुरष आप ही हैं। आप ही चर-अचर जगत के रक्षक और पालनहार हो, मुझे इन लोगों के उद्धार के लिए अपने ज्योतिर्ज्ञान को स्थिर रखने के लिए एक बार अपने दर्शन दे दो, ताकि मेरे मन का आत्मबल बना रहे और मैं काम, क्रोध, मोह, लोभ और अहंकार में डूबे हुए लोगों को इन फनियरों से बचाने के लिए सच्चा मार्गदर्शन करता रहूं और उन्हें भटकने से रोकता रहूं।

मलिन भई मति माधवा।

तेरी गति लखि न जाई।।

करहु किरपा भरम चुकाई।

मैं सुमति देहु समझाई।।२।।

गुरु रविदास महाराज जी फरमाते हैं, कि देश विदेश के लोगों की बुद्धि भ्रष्ट ही नहीं दूषित हो गई है और पांच ठगों से भ्रमित हो गई है। मैं भी आप की चाल को समझ नहीं पा रहा हूं अर्थात आपके अलौकिक ज्योतिर्ज्ञान को समझ नहीं पा रहा हूं, कृपया करके मेरे भ्रम को भी समाप्त कर दो। मुझे ऐसी सुबुद्धि दो कि मेरी समझ काम कर सके, क्योंकि सामाजिक बुराइयों और काम, क्रोध, मोह, लोभ और अहंकार के कारण सारी सृष्टि पथ भ्रष्ट हो चुकी है और मैं भी उन्हें देख कर भ्रमित हूं, इसलिए मुझे भी सुमति प्रदान करो

जोगीसर पावहि नहीं।

तुअ गन कथनु अपार।।

प्रेम भगति कै कारणे।

कहु रविदास चमार।।३।।१।। 

गुरु रविदास महाराज, आदपुरुष की अपरंपार शक्ति को देख कर के, उन के ज्योतिर्ज्ञान को अनुभव करते हुए कहते हैं, कि विश्व में कोई भी योगीश्वर आप का अंत (भेद) नहीं पा सका है और ना ही कोई आज भी नहीं पा सकता है। कोई आप के बारे में पूर्ण रूप से जान नहीं सकता है। मैं रविदास चमार भी जन कल्याण के लिए प्रेम भक्ति के द्वारा आप के दर पर याचक बन कर प्रार्थना कर रहा हूं, कि जनकल्याण के लिए, आप मुझे अपनी दिव्य ज्ञान ज्योति प्रदान करो

शब्दार्थ: कूप-कुआं। दादिरा-मेंढक, ड्डू। देशु-देश। विदेसु-विदेश। बूझ-जानना। बिखिआ-विष, जहर, काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार। बिमोहिआ-आकर्षित होंना, मोहित होंना। आर-नदी का पहला छोर, किनारा, तट। पार-नदी का दूसरा किनारा। सूझ-समझ। सगल- सारा। भवन-घर लक्ष्यार्थ मानव शरीर।  नाईका-नायक, नेता अर्थात भगवान। इक-एक। छिन-क्षण। दरसु-दर्शन। मलिन-मैली, दूषित। मति-बुद्धि। माधवा-परमात्मा। गति-चाल, अंतरात्मा की आवाज। लखी-देखी। भरम-संदेह, शक। चुकाई-चुकाना, उठाना, खत्म करना, मिटाना। सुमति-अच्छी बुद्धि। पावहि-पाना, प्राप्त करना। जोगीसर-योगीश्वर। कहु-कहना। तुअ-आप। कथनु-कथन, कहा हुआ। कै-के लिये। कारणे-कारण। अपार-असीम, वहुत वहुत। 

रामसिंह आदवंशी।

Abhay das ji

रविवार, 11 जुलाई 2021

चार पदारथ

    चार पदार्थ

         अध्यात्म, 
सूरत .निरत .शब्द .स्वांस, 
          कर्मरूप में, 
धर्म, अर्थ काम मोक्ष, 
          देहरूप में, 
मन .बुद्धि. चित .अहंकार, 
        वचनरूप में, 
सत्य, प्रेम, करुणा, सील,

ज्ञान वैराग्य प्रेम चिंतन

बुधवार, 28 अप्रैल 2021

साहेब कांशी राम जी

मेरा समाज निचोड़ कर फेंके नींबू के छिलके की तरह है- साहेब कांशी राम 



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पम्मी लालोमज़ारा (बंगा, नवांशहर) बात है 1991 की. लोकसभा के चुनावों के दौरान कुमारी मायावती को एक एस.पी. के थप्पड़ मारने के बदले में उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार ने पोटा कानून लगाकर इलाहबाद की नैनी केन्द्रीय जेल में बंद कर दिया था. पंजाब के हरभजन सिंह लाखा भी उनके साथ ही जेल में बंद थे. कार्यकर्ताओं में मायूसी का आलम था. मायूसी के इस आलम को दूर करने के लिए साहेब ने दिल्ली में एक जागरूकता रैली का आयोजन किया. रैली के बाद कुछ कार्यकर्ता कंपनी बाग़ में रुक गए और साहेब उनके बीचोबीच बैठ गए. साहेब ने एक बिशन सिंह नाम के कार्यकर्ता को देखकर कहा ‘तुम्हें देखकर मुझे अपनी माँ (बिशन कौर) की याद आ जाती है.’ बिशन सिंह साहेब को कुछ कहना चाहता था तो साहेब ने ये बात भांप कर उसे पूछा, ‘क्या कहना चाहते हो? कहो!’ बिशन सिंह ने कहना शुरू किया, ‘साहेब जी, आप दिन रात इतनी मेहनत करते हो. लेकिन अपने समाज की बात आगे नहीं बढ़ रही. क्यों?’


साहेब ने पास में बैठे जय सिंह निगम को एक विक्रेता की और इशारा करते हुए कहा, ‘वो जो नींबू पानी बेचता है, उससे एक निचोड़े हुए नींबू का छिलका उठा के ला.’ साहेब ने जय सिंघ से वह नींबू का छिलका लेकर अपनी हथेली पर रख लिया और ऊपर से थोड़ा सा पानी डाला. फिर उसे मसला और और दो-तीन कार्यकर्ताओं के दो-चार बूँदें निचोड़ कर पूछा कि बताओ, इसमें किस चीज़ का स्वाद आ रहा है? सबने अपना एक मत जताते हुए कहा, ‘नींबू का स्वाद!’


साहेब ने थोड़ा आश्चर्य जताते हुए सवाल किया, ‘ये तो नींबू का छिलका था, इसमें तो जरा भी रस नहीं था. फिर इसमें नींबू का स्वाद भला कहाँ से आ गया?’


साहेब की बात पर सभी चुप रह गए. कोई कुछ न बोला. साहेब ने सबकी और देखा और बोलना शुरू किया, ‘अपना समाज भी दरअसल निचुड़े-सूखे नींबू की तरह है. इसपर आप थोड़ा सा पानी डालो, यानि सोये हुए समाज को जगाने की कोशिश करो, इसका स्वाद नींबू वाला ही आता है यानि समाज बहुजन समाज बन जाता है. मैं इस काम में दिन रात लगा हुआ हूँ. लेकिन हमारा समाज बहुत बड़ा है और उसे जगाने वाले लोग कम हैं. इसलिए मेरे समाज के लोगों को समझने में देर लग रही है.


( मैं कांशीराम बोल रहा हूं "किताब लेने के लिए संपर्क करें  9501143755 लेखक पंमी लाल़ो मजारा, बंगा-नवांशहर , पंजाब। )

गुरुवार, 22 अप्रैल 2021

ग्रेट चमार महान विद्वान ज्ञानी दीत्त सिंह चमार

 सिख धर्म के सबसे महान विद्वान ज्ञानी दित्त सिंह चमार - ज्ञानी दित्त सिंह जी का जन्म 21 अप्रैल 1850 में गांव बस्सी पठाना , लाहौर पाकिस्तान में एक चमड़े का काम करने वाले चमार परिवार में हुआ जिनको सिख धर्म में रविदासिया सिख के नाम से जाना जाता है । अपनी प्राइमरी शिक्षा उन्होंने गुरबख्श सिंह और लाला दयानंद जी से गांव तिऊर , ज़िला अम्बाला , हरियाणा से प्राप्त की । इस दौरान उन्होंने उर्दू , गुरमुखि और फारसी भाषा में महारत हासिल की । 1881 में जब सिखों की गिनती सिर्फ 16 लाख रह गई थी तब इनके प्रचार की बदौलत ही सिखों की गिनती बढ़नी शुरू हुई थी , जब और धर्मों के लोग भी सिखी के साथ जुड़ना शुरू हो गए थे । 


👉 इन्होंने अपने 51 साल के जीवन में 70 से भी ज्यादा किताबें लिखी ।

👉 दुनिया के सबसे पहिले पंजाबी प्रोफेसर ।

👉 सिंह सभा लहर की संस्थापना और खालसा कालेज अमृतसर की संस्थापना इन्होंने ने की थी ।

👉 स्नातन धर्म के उस समय के सबसे बड़े विद्वान स्वामी दयानंद को 4 बार विचार चर्चा में हराया । 

👉 1873 में जब ईसाई मिशनरियों और आर्य समाज का प्रचार जोरों पर था और लोग सिख धर्म से दूर हो रहे थे तब दिन रात एक करके लोगों को सिख धर्म के साथ जोड़कर उसकी नींव मजबूत की ।

                              आखिर ये महान चमार  06-09-1901 को इस संसार को छोड़कर चला गया । अगर यह हीरा किसी और जाति का होता तो इसके नाम से कालेज , यूनिवर्सिटी आदि बनाई जाती , चमार होने की वजह से इनका ज़्यादा नाम नहीं लिया जाता । लेकिन हमें हमेशा इस बात का गर्व रहेगा सिख धर्म को जब सबसे बड़े मुश्किल समय से गुजरना पड़ रहा था तो उसको बचाने वाला हमारे महान चमार वंश का योद्धा था । चलो इस से हमें एक बहुत बड़ी सीख मिलती है कि किसी और धर्म के लिए अपना पूरा जीवन लगाने के बाद भी चमार विद्वान इतिहास के पन्नों में ही गुम होकर रह गए । तो हमें अपने आज़ाद रविदासिया धर्म का प्रचार करना चाहिए , गुरु रविदास जी की बानी पढ़कर उसमें नई-नई खोज करनी चाहिए । क्योंकि जिनका अपना धर्म नहीं होता उनका अच्छे से अच्छे इतिहास दूसरे धर्मों में मिश्रित होकर खत्म हो जाता है । जब तक कोई कौम अपने इतिहास के सुनहरी पन्नों में से प्रेरणा नहीं लेती तब तक उनमे नेतृत्व करने का जीतने का जज़्बा पैदा नहीं होता । इस लिए हमें अपने रविदासिया धर्म के साथ जुड़ना चाहिए ताकि हमारा इतिहास रविदासिया धर्म के अधीन लिखा जाए और आने वाली पीढियां उसको पढ़कर प्रेरणा लेकर ज़िन्दगी का हर मैदान फतिह ( जीत ) कर सकें ।

                                                        अभयदास जी देवबंद