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गुरुवार, 21 अक्टूबर 2021

मिलत पिआरे प्राण नाथु कवन भगति ते।।

 ।।मिलत पिआरे प्राण नाथु कवन भगति ते।।

                 ।।राग मल्हार।।



मैंने पहले भी कहा था कि, गुरु रविदास जी महाराज जन्मजात परिपूर्ण सन्त, गुरु, सर्वोच्च आध्यात्म के केंद्र हुए हैं, जिन का धरती के ऊपर कोई भी साम्य नहीं रखता है। जिन व्याख्याकारों ने गुरु रविदास जी को साधक के रूप में चित्रित कर के संबोधित करते हुए शब्दों की व्याख्या की है, उन्होंने गुरु जी के कद को घटाने का ही काम किया गया है। गुरु जी ने, सांसारिक कमजोरियों के भंडार मनुष्य की मुक्ति के लिए, आदपुरुष से अरजोई करते हुए, उस के पास जीव जगत और मानव के कल्याणार्थ वकालत की है। वे धरती के ऊपर आदिपुरुष के भेजे गए सम्पूर्ण अवतार थे, जिन्होंने ब्राह्मणों के आतंक से केवल भारत के मूलनिवासियों को ही नहीं, बल्कि समूचे विश्व के लोगों को मुक्त कराने के लिए अपने आप को अनेकों तसीहे सहन करने के लिए प्रस्तुत किया था। गुरु जी ने शांतिपूर्ण तरीके से ब्राह्मणों को सत्य को समझने के लिए प्रेरित किया मगर भूले भटके ये लोग सत्य को नहीं समझ सके और गुरु जी को अपना दुश्मन मानते रहे। ब्राह्मणों की नींव ही छलकपट की दहलीज पर टिकी हुई है, बेईमानी इन की रग रग में रच चुकी है, इन की सफेद रंग की धोती, चंदन के तिलक और शंख केवल मात्र पापों को छुपाने के मूलमंत्र ही हैं, जिन का शिकार मूलनिवासी होते आए हैं। गुरु रविदास जी महाराज ने, जो कुछ किया वह ब्राह्मणों के ठीक विपरीत किया और समझाने का प्रयास किया है, कि आप पथभ्रष्ट ब्राह्मण हो मगर इन लोगों ने गुरु जी के सुकृत्यों को हमेशा ही विपरीत और ऋणात्मक ही लिया। गुरु जी ने जिस सिला के ऊपर रैदास और जगजीवन दास चमड़े के जूते बनाते हैं, उसी को गंगा में तैराया था, जब कि ब्राह्मणों ने अपने पवित्र पत्थर के देवता तारने का ढोंग रचा मगर असफल रहे और वे गंगा में डूब गए थे, गुरु जी ब्राह्मणों के प्रदूषित जल से नहीं नहाते थे, इसीलिये वे ब्राह्मणों से ऊपर गंगा स्नान करते थे, मगर जब ब्राह्मणों ने राजा के पास झूठा पर्चा कटवाया और कहा, कि महाराज, रविदास हम से ऊपर नहाता है और पानी को गंदा करता है, जिस का न्याय किया जाए, मगर जब ब्राह्मण राजा को गंगा तट पर ले गए और पूछा कि रविदास कहाँ स्नान करते हैं? ब्राह्मणों ने जिस स्थान को बताया था, वहां से तो गंगा ही विपरीत दिशा में वह रही थी। जब संत मीराबाई गुरु जी की शिष्या बन गई, तब उस के पीयर और सुसराल वालों ने गुरु जी को घात रख कर, सतसंग करने के बहाने चितौड़गढ़ महल में बुलाया और अपने काले कंबलों में छुरे, तलवारें ले कर पंडाल में बैठ गए थे, जब गुरु जी ने शब्द कीर्तन शुरू किया और उन के शब्दों की धुन उन छली हत्यारों, पापियों के अंतःकरण को चीरने लगी, तो वे सभी मंत्रमुग्ध हो गए और उन के बरछे, तलवारें आत्मविस्मृत अवस्था में धरती के ऊपर गिर पड़े, जिस से उन के समस्त पाप कर्म जगजाहिर हो गए। जगन्नाथपुरी में ब्राह्मण पंडे पुजारी भीलों के चढ़ावे तो डकार जाते थे, लेकिन उन्हें कथा और आरती सुनने नहीं देते थे, जिस अन्याय को दूर करने के लिए गुरु जी खुद वहां गए। जब उन्हें भीलों के साथ जगन्नाथ के मंदिर से निकाल दिया गया था, तब गुरु जी ने, मन्दिर के दूसरी ओर मुंह कर के अछूत भीलों के साथ सस्वर आरती गाई थी। जब उन की आंखें खुलीं तो जगन्नाथ की मूर्ति उन के सामने थी, फिर ऐसे परिपूर्ण गुरु को संबोधित कर के अर्थ निकालना सूर्य को दीपक दिखाना ही है। गुरु रविदास जी ने इस शब्द में साधक को फरमाया है कि, हे भाई! प्राणनाथ अर्थात आदपुरुष किस प्रकार मिल सकते हैं:---

मिलत पिआरे प्राण नाथु कवन भगति ते।।

साध सँगति पाई परम गते।।रहाउ।।

गुरु रविदास जी महाराज संगत को पूछते हैं, कि प्राणों से प्रिय नाथ अर्थात आदपुरुष मनुष्य को किस भक्ति से मिल सकते हैं? गुरु रविदास जी महाराज खुद ही साध सँगत को उतर देते हुए फरमाते हैं, कि साध संगत के बीच रह कर ही, हम परमपिता परमेश्वर को प्राप्त कर सकते हैं, अर्थात आदपुरुष को प्राप्त करने के लिए केवल साध सँगत की ही जरुरत है।

मैले कपरे कहां लउ धोवउ।।

आवैगी नींद कहां लगु सोवउ।।१।।

गुरु रविदास जी फरमाते हैं कि, मैले कपड़े पहन कर नींद कहां आती है और कोई कैसे सो सकता है? इसलिए मैले कुचैले कपड़ों को कहां धोया जा सकता है? अर्थात गुरु रविदास जी महाराज, प्रिय साध संगत को फरमाते हैं, कि जिस प्रकार ज्योतिर्मंडल में चलने वाली वायु से कपड़े गंदे हो जाते हैं और उस की दुर्गंध के बीच मनुष्य सो भी नहीं पाते हैं, वैसे ही काम, क्रोध, मोह, लोभ, अहंकार और माया के प्रदूषण से आत्मा रूपी कपड़ा गंदा हो जाता है और उस गंदगी के कारण मनुष्य सुख चैन की जिंदगी नहीं गुजार सकता है। उस का अंतःकरण अपवित्र हो जाता है और संसारिक बन्धनों में पड़ कर अज्ञानता के बीच ही भटकता फिरता रहता है, यदि उसे साध संगत नहीं मिलती है, तो वह आजीवन इसी मूर्खता की गंदगी में पड़ा रहता है।

जोई जोई जोरिउ सोई सोई फाटिउ।।

झूठे वनजि उठि ही गईं हाटिउ।।२।।

गुरु रविदास जी महाराज अपने अनुभवों को व्यक्त करते हुए फरमाते हैं, कि हे साध संगत जी! आप के मिलने से पहले जो जो हमने, काम, क्रोध, मोह, लोभ, अहंकार और माया के कारण जोड़ जोड़ कर संग्रह किया था, वह सब कुछ आप के मिलने पर वैसे ही बर्बाद हो गया जिस प्रकार पुराने कपड़े फट जाते हैं। जो जो झूठा व्यापार आप के मिलने से पहले किया था, उस का सारा ही बाजार बर्बाद हो गया है अर्थात ज्योतिर्विज्ञान ही संगत के मिलने पर ही प्राप्त हो सका है और मन के अंदर पांचों विकारों के झूठ के बाजार बंद हो गए हैं।

कहु रविदास भइउ जब लेखिउ।।

जोई जोई कीनो सोई सोई देखिउ।।३।। 

गुरु रविदास जी महाराज फरमाते हैं, कि जीवन के अंत में जब अच्छे और बुरे कर्मों का लेखा जोखा होता है, उस समय ही ज्ञात होता है कि जीवन में जो जो कर्म किए हैं, वही उस समय दिखाई देते हैं। इसीलिए गुरु महाराज समझाते हैं कि, साध संगत के बीच रह कर ही ज्योतिर्ज्ञान की प्राप्ति होती है और उस से पहले के कर्मों की यदि पड़ताल की जाए, तो स्पष्ट हो जाता है, कि बुरे कर्मों का लेखा जोखा समाप्त हो गया है, यह सब कुछ साध संगत की बदौलत ही ऐसा होता है।

शब्दार्थ:--- प्राणनाथु- श्वासों के मालिक, आदिपुरुष। ते-से। परम गते-चरम सीमा, अध्यात्म की उच्चतम अवस्था। मेले कपरे-गंदे कपड़े, पांच विकारों से मलिन आत्मा। कहा लउ-कब तक। नींद-निंद्रा, अज्ञानता की नींद। फाटिउ-फटा हुआ, दूर हो जाना। झूठे वनजि-झूठ का व्यापार, बुरे कर्मों का व्यापार। उठि ही गई-बर्बाद हो गई। हाटिउ-बाजार। भयउ-होता है।

।। जीवन चार दिन का मेला रे।।

      ।। जीवन चार दिन का मेला रे।।

गुरु रविदास जी महाराज किसी जाति विशेष या धर्म विशेष के समर्थक नहीं थे, उन्होंने मानव निर्मित धर्मों, जातियों की बुराइयों का तर्कसंगत पोस्टमार्टम किया हुआ है। जिस में उन्होंने सभी प्रकार के आडंबरों, पाखंडों का खंडन किया है। भोले भाले लोगों को लूटने वाले ठगों, लुटेरों का बुरी तरह पर्दाफाश किया हुआ है। गुरुजी जीवन की वास्तविकता और सत्य को प्रकट करते हुए इस शब्द में फरमाते हैं, कि मनुष्य ही, मनुष्य को लूट कर, ठग कर बड़ी निर्दयतापूर्वक शोषण करता है, जबकि यह जीवन क्षणिक है।

जीवन चारि दिन का मेला रे।

बामन झूठा, वेद झूठा, झूठा ब्रह्म अकेला रे।।


गुरु रविदास जी महाराज फरमाते हैं, कि यह जीवन एक मेंला है, जो सिर्फ चार दिन का है और उस के बाद यह मेला अर्थात मनुष्य का मिलन समाप्त हो जाता है। ब्राह्मणों ने जो यह वेदों, पुराणों में सच झूठ लिख कर के संगत को मूर्ख बना कर लूट मचाई हुई है, उस के प्रति संगत को समझाया है कि, पंडित वेद और ब्रह्मा के नाम पर घड़ा गया ब्रह्म शब्द भी झूठ है।

मंदिर भीतर मूरति बैठी, पूजती बाहर चेला रे। लड्डू भोग चढ़ावति, मूरति के ढिग केला रे।।

गुरु रविदास जी महाराज फरमाते हैं, कि संगत को लूटने के लिए मंदिरों का निर्माण किया गया है और उन के बीच पत्थर की मूर्तियां स्थापित की गईं हैं, जिन की पुजारी खुद साफ, सफाई ना कर के अपने गुलाम चेलों से ही साफ सफाई और पूजा आदि का काम लेते हैं। लोग मूर्ति को लड्डुओं, प्रसाद आदि का भोग चढ़ाते हैं।मूर्तियों के पास सेव, संतरे केले आदि अर्पित करते हैं।

पत्थर मूरति कछु न खाति, खाते बामण चला रे।

जनता लुटती बामन सारे, प्रभु देति न धेला रे।।

गुरु रविदास जी महाराज ढोंगियों, पाखंडियों के पाखंडों, आडंबरों, कपटों को उजागर करते हुए, फरमाते हैं, कि मंदिर में स्थापित पत्थर की मूर्ति कुछ भी नहीं खाती है और केवल उस मंदिर के बीच बैठे गुरु और चेला ही खाते हैं। यह ब्राह्मण छल कपट कर के लोगों को ठगते हैं, जिस से जनता लूटी लूटी जा रही है, और परमपिता परमेश्वर को धेला अर्थात खोटा सिक्का तक नहीं देते हैं। 

पाप पुण्य, पुनर्जन्म का, बामन दीना खेला रे। सवर्ग नरक बैकुंठ पधारो, गुरु शिष्य चेला रे।।

गुरु रविदास जी महाराज फरमाते हैं, कि ब्राह्मण तिलकधारियों ने, मनुष्य को पुनर्जन्म और पाप पुण्य के जाल में फंसा हुआ है, स्वर्ग नरक का मानसिक आतंक फैला कर के लोगों को डर से भयभीत किया हुआ है। स्वर्ग में भेजने के नाम पर गुरु और चेला लोगों को लूटते हैं और संगत को इस खेल के बीच उलझाया हुआ है।

जितना दान देवोगे, उतना निकसे तेला रे।

बामन जात बहकाए, जंह तँह मचे बबेला रे।।

तिलकधारी ब्राह्मणों ने लोगों को इस कदर अपनी ओर आकर्षित किया हुआ है, कि लोग उन के जाल में मच्छलियों की तरह फंस जाते हैं। दान लेने के लिए, लोगों को कहते हैं कि, जितना आप देंगे, उतना ही आप को प्रभु देंगे। जितना बीज कोहलू में डालोगे उतना ही तेल निकलेगा। मानसिक रूप से प्रताड़ित करते हुए तर्क देते हुए कहते हैं, जितना कोई बांटता है, उतना ही उसे मिलता है। ये ब्राह्मण जनता को लूटने के लिए बहकाते और फुसलाते हैं, अगर कोई उन का विरोध करे तो उस के खिलाफ जगह जगह पर बवाल पैदा करते हैं।

छोड़ि बामन अ संग मेरे, रविदास अकेला रे। 

गुरु रविदास जी महाराज, सर्वश्रेष्ठ, सर्वोच्च इस ज्योतिर्मंडल के ज्योतिर्ज्ञान के सर्वोत्तम अकेले ज्योतिरपुंज गुरु हुए हैं। वे इन सब आडंबरों और पाखंडों का खंडन करते हुए, जनता को, संगत को समझाते हैं, कि हे मेरी प्रिय सँगते! इन ब्राह्मणों का साथ छोड़ कर के, मेरे पास आ जाओ, मैं अकेला हूं और मैं आप को इस जीवन को सुखी बनाने का मंत्र बताता हूं।

शब्दार्थ:-- चारि दिन-क्षणिक, कुछ समय का। मेला-मिलन, इकठ्ठ। बामन-यूरेशियन लोग। ब्रह्म-ब्रह्मा का वंशज, ब्रह्मा से ही ब्रह्म, ब्रह्मज्ञान, ब्रह्मपुत्र, ब्रह्मलीन, ब्राह्मण, ब्रह्मजोत आदि शब्द घड़े गए हैं, जो काल्पनिक यूरेशियन अति मानव के नाम पर शब्द शब्दकोश में लिखे गए हैं। चेला-पुजारी का शिष्य। ढिग-पास, मूर्ति के मुंह के समीप। धेला-पुराना सिक्का जो अब तुच्छ है। खेला-खेल। बैकुंठ-स्वर्ग का झांसा। निकसे-निकलना। तेला-तेल। मचे-शोर पड़ना। बहकाए-फुसलाना। बबेला-बबाल, बात का बतंगड़।

नोट:---इस शब्द को जनश्रुति के आधार पर लिखा गया है, क्योंकि गुरु जी के महानिर्वाण के बाद उन का सम्पूर्ण साहित्य ब्राह्मणों ने जला दिया था, जिस के कारण अनुयायियों ने अपने कंठस्थ शब्दों को अपनी भाषा में लिखा है। इस शब्द की भाषा शैली गुरु रविदास जी की भाषा शैली से मेल नहीं खाती हैl


Abheya Das Deoband ...........



शनिवार, 18 सितंबर 2021

           ।।नामु तेरो आरती।।

             ।। राग धनासरी।



गुरु रविदास जी महाराज ने, विश्व के सभी धर्मों के  नियमों और सिद्धांतों का अनुशीलन और गहन अध्ययन कर के अनुभव किया है, कि सभी धर्मों के प्रचारको ने अपने अपने पैगंबरों के गुणगान किए हैं और अपने अपने भगवानों की स्तुति में अपनी अपनी प्रार्थनाएं इजाद कर रखी हैं, जिन में कोई भी तर्कसंगत स्तुति नजर नहीं आती है, जो कुछ भी निरंकार को अर्पित करते हैं, वह सारे का सारा निरंकार द्वारा निर्मित है। निरंकार ने सृष्टि की रचना इस ढंग से की हुई है, कि एक प्राणी दूसरे प्राणी के ऊपर जीवन यापन करने के लिए निर्भर किया हुआ है, मगर उसी की दी हुई सामग्री को मनुष्य निरंकार को अर्पण कर के, अपनी भक्ति का थोथा प्रदर्शन करता है, इसलिए गुरु रविदास जी ने इन धर्मांध लोगों को उन की वास्तविकता का अहसास करवाते हुए कहा है, कि यह संसार "कूप भरिउ जैसे दादरा कछु देश विदेश न बूझ" अर्थात यह सारा संसार वैसे ही भरा हुआ है, जैसे कुएं के बीच मेंढक भरे हुए हैं, क्योंकि ये सभी मेंढक कुएं को ही अपना संसार मानते हैं, इसी प्रकार देश-विदेशों में रह रहे सभी धर्मों के लोग, संचालक भी सत्य को समझ बूझ नहीं सके हैं।

गुरु जी सृष्टि के सृजक के बारे में हमें बताते हैं कि, "एक ही एक अनेक हुई विस्थारिउ" अर्थात एक से ही धरती के ऊपर अनेक हुए हैं और उसी (आदपुरुष) से धरती पर समूचे प्राणी जगत का विस्तार हुआ है, फिर उसी की बनाई हुई वस्तुओं को मानव निरंकार को नैवेद्य कर के उसे प्रसन्न करने का प्रयास करता है, जो निरर्थक है। इसी लिए गुरु जी फरमाते हैं, कि  हे परमपिता परमेश्वर अर्थात आदपुरुष धरती के ऊपर ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जो आप को अर्पित की जा सके और ऐसा कोई शब्द भी नहीं है, जिस को संगीतमय कर के आप की आरती गाई जाए और आरती उतारी जाए। गुरुजी निम्नलिखित शब्दों में तर्कसंगत आरती सँगत को भेंट कर के, सँगत को उपकृत करते हैं:---

नामु तेरो आरती मजने मुरारे।। 

हरि के नाम बिने झूठे सगल पसारे।।१।।रहाउ।।

गुरु रविदास जी महाराज ईश्वर की स्तुति में गाए जाने वाली सभी आरतियों को रद्द करते हुए फरमाते हैं, कि हे आदिपुरुष! यदि आप की स्तुति में गाई जाने वाली सभी आरतियों का तर्कसंगत और वास्तविकता के आधार पर विश्लेषण किया जाए, तो यही परिणाम सामने आता है कि, आप का नाम ही आरती है और आप के नाम का जाप करना ही मेरे लिए शाही स्नान है, इस के बिना सारी सृष्टि का प्रसार सब झूठ है।

नाम तेरो आसनों नामु तेरो उरसा

नामु तेरो केसरो लै छिटकारे।

नामु तेरो अंबुला नामु तेरो चन्दनो

घसि जपै नामु लै तुझहि कउ चारे।।१।।

गुरु रविदास महाराज, आदपुरुष को संबोधित करते हुए फरमाते हैं, कि हे आदपुरुष! आप का नाम ही भक्ति करने वाला आसन है और उरसा (सिला जिस के ऊपर तिलक लगाने के लिए चंदन घिसा जाता है) है। आप का नाम ही आप की मूर्ति के ऊपर छिड़का जाने वाला केसर है। आप का नाम ही पानी और चंदन है, जिन को सिला के ऊपर रगड़ कर, आप का नाम ले कर आप को (चारे) चढ़ाया जाता है अर्थात तिलक लगाया जाता है। 

नामु तेरो दीवा नामु तेरो बाती

नामु तेरो तेलु लै माहि पसारे।।

नामु तेरो की जोति लगाई

भइउ उजिआरे भवन सगलारे।।२।।

गुरु रविदास जी महाराज फरमाते हैं कि हे परम पिता परमेश्वर! आपका नाम ही दीपक है और उस के बीच प्रज्वलित होने वाली बाती भी आप का ही नाम है। उस दीपक में जलने वाला तेल आप का ही नाम सिमरन है, आप के पवित्र नाम सिमरन की ज्योति ही दिए से निकलती है, जिस से सारा ज्योतिर्मंडल ही प्रकाशित होकर जगमग करता है।

नामु तेरो तागा नामु फूलमाला

भर अठारह सगल झुठारे।।

तेरो कीआ तुझहि कउ अरपउ

नामु तेरो तुहि चंवर ढोलारे।।३।।

गुरु रविदास जी महाराज फरमाते हैं, कि हे परम पिता परमेश्वर! आप का नाम ही धागा है और उस में गूंथे जाने वाले फूलों का समूह फूलमाला भी आप ही हैं। आप की पूजा के लिए अठारह प्रकार की वनस्पतियों को अर्पित करना सारा झूठ है। यह सब कुछ आप ने ही पैदा किया हुआ है, जिसे सांसारिक जीवों ने जूठा कर रखा है, जो आप को अर्पित करने की योग्य नहीं है। इसलिए हे आदिपुरुष! आप की पैदा की हुई सृष्टि में से किसी भी प्रकार की सामग्री आप को कैसे अर्पित करूं? यदि ऐसा करूं तो फिर मैं अपनी तरफ से आप को क्या अर्पित करूंगा? इसलिए मैं तन मन से आप के सिमरन की सत्य आरती कर के, आप के नाम रूपी चंवर को आप के ऊपर झुलाता हूं।

दस अठा अठसठे चारे खाणी

इहो बरतणी है सगल संसारे।।

कहै रविदास नामु तेरो आरती

सतिनामु है हरि भोग तुहारे।।४।।३।।

गुरु रविदास जी महाराज फरमाते हैं, कि हे परम पिता परमेश्वर! सारा संसार अठारह पुराणों में लिखी हुई, कल्पित झूठी कहानियों को ध्यान में रख कर के अठाहट तीर्थों का स्नान कर के चार प्रकार का खाना खा कर, संसार के लोग कैसा व्यवहार कर के, आप की कैसी पूजा करते हैं? अर्थात चार प्रकार का खाना खाने वाले सभी जीव पवित्र नहीं है, इसलिए उन का छुआ हुआ आप को अर्पित करना मेरे लिए उचित नहीं है। इसलिए हे परमपिता परमेश्वर आप का नाम ही आप की आरती उतारना है और सतनाम का जाप करना आप के लिए सच्ची श्रद्धा से भोग लगाना है।

पद अर्थ:-- आरती-हिंदू धर्म की रीति के अनुसार थाल के बीच दीवा आदि रख कर मूर्ति के आगे थाल को घुमाया जाता है और भजन गाए जाते हैं। मजनू-तीर्थों का स्नान। मुरार-प्रभु पसारे- खलार, आडंबर प्रसार। आसनों- कपड़ा जिस के ऊपर बैठ कर मूर्ति की पूजा की जाती है। उरसा- चंदन रगड़ना वाला पत्थर। अंबुला- पानी। चारे-चढ़ाना, अर्पित करना। माही-बीच। पसारे- प्रसारित, पाना। भवन-घर। सगला-सारी सृष्टि। भार अठारह- संसार की सारी वनस्पति के हर एक पौधे का एक-एक पता इकट्ठा कर के अठारह भार बनते हैं। अरपु-भेंट करना, तर्पण करना। ढोलारे-झुलाना। दस अठा- अठारह पुराण। अठ छठे- हिंदुओं के अठाहट तीरथ। चारे खाणी-चार प्रकार का खाना, अंडज, जेरज, स्वेतज, उतभुज जीवों का भोजन।

 

जीवन चार दिन का मेला रे

      ।। जीवन चार दिन का मेला रे।।


गुरु रविदास जी महाराज किसी जाति विशेष या धर्म विशेष के समर्थक नहीं थे, उन्होंने मानव निर्मित धर्मों, जातियों की बुराइयों का तर्कसंगत पोस्टमार्टम किया हुआ है। जिस में उन्होंने सभी प्रकार के आडंबरों, पाखंडों का खंडन किया है। भोले भाले लोगों को लूटने वाले ठगों, लुटेरों का बुरी तरह पर्दाफाश किया हुआ है। गुरुजी जीवन की वास्तविकता और सत्य को प्रकट करते हुए इस शब्द में फरमाते हैं, कि मनुष्य ही, मनुष्य को लूट कर, ठग कर बड़ी निर्दयतापूर्वक शोषण करता है, जबकि यह जीवन क्षणिक है।

जीवन चारि दिन का मेला रे।

बामन झूठा, वेद झूठा, झूठा ब्रह्म अकेला रे।।

गुरु रविदास जी महाराज फरमाते हैं, कि यह जीवन एक मेंला है, जो सिर्फ चार दिन का है और उस के बाद यह मेला अर्थात मनुष्य का मिलन समाप्त हो जाता है। ब्राह्मणों ने जो यह वेदों, पुराणों में सच झूठ लिख कर के संगत को मूर्ख बना कर लूट मचाई हुई है, उस के प्रति संगत को समझाया है कि, पंडित वेद और ब्रह्मा के नाम पर घड़ा गया ब्रह्म शब्द भी झूठ है।

मंदिर भीतर मूरति बैठी, पूजती बाहर चेला रे। लड्डू भोग चढ़ावति, मूरति के ढिग केला रे।।

गुरु रविदास जी महाराज फरमाते हैं, कि संगत को लूटने के लिए मंदिरों का निर्माण किया गया है और उन के बीच पत्थर की मूर्तियां स्थापित की गईं हैं, जिन की पुजारी खुद साफ, सफाई ना कर के अपने गुलाम चेलों से ही साफ सफाई और पूजा आदि का काम लेते हैं। लोग मूर्ति को लड्डुओं, प्रसाद आदि का भोग चढ़ाते हैं।मूर्तियों के पास सेव, संतरे केले आदि अर्पित करते हैं।

पत्थर मूरति कछु न खाति, खाते बामण चला रे।

जनता लुटती बामन सारे, प्रभु देति न धेला रे।।

गुरु रविदास जी महाराज ढोंगियों, पाखंडियों के पाखंडों, आडंबरों, कपटों को उजागर करते हुए, फरमाते हैं, कि मंदिर में स्थापित पत्थर की मूर्ति कुछ भी नहीं खाती है और केवल उस मंदिर के बीच बैठे गुरु और चेला ही खाते हैं। यह ब्राह्मण छल कपट कर के लोगों को ठगते हैं, जिस से जनता लूटी लूटी जा रही है, और परमपिता परमेश्वर को धेला अर्थात खोटा सिक्का तक नहीं देते हैं। 

पाप पुण्य, पुनर्जन्म का, बामन दीना खेला रे। सवर्ग नरक बैकुंठ पधारो, गुरु शिष्य चेला रे।।

गुरु रविदास जी महाराज फरमाते हैं, कि ब्राह्मण तिलकधारियों ने, मनुष्य को पुनर्जन्म और पाप पुण्य के जाल में फंसा हुआ है, स्वर्ग नरक का मानसिक आतंक फैला कर के लोगों को डर से भयभीत किया हुआ है। स्वर्ग में भेजने के नाम पर गुरु और चेला लोगों को लूटते हैं और संगत को इस खेल के बीच उलझाया हुआ है।

जितना दान देवोगे, उतना निकसे तेला रे।

बामन जात बहकाए, जंह तँह मचे बबेला रे।।

तिलकधारी ब्राह्मणों ने लोगों को इस कदर अपनी ओर आकर्षित किया हुआ है, कि लोग उन के जाल में मच्छलियों की तरह फंस जाते हैं। दान लेने के लिए, लोगों को कहते हैं कि, जितना आप देंगे, उतना ही आप को प्रभु देंगे। जितना बीज कोहलू में डालोगे उतना ही तेल निकलेगा। मानसिक रूप से प्रताड़ित करते हुए तर्क देते हुए कहते हैं, जितना कोई बांटता है, उतना ही उसे मिलता है। ये ब्राह्मण जनता को लूटने के लिए बहकाते और फुसलाते हैं, अगर कोई उन का विरोध करे तो उस के खिलाफ जगह जगह पर बवाल पैदा करते हैं।

छोड़ि बामन अ संग मेरे, रविदास अकेला रे। 

गुरु रविदास जी महाराज, सर्वश्रेष्ठ, सर्वोच्च इस ज्योतिर्मंडल के ज्योतिर्ज्ञान के सर्वोत्तम अकेले ज्योतिरपुंज गुरु हुए हैं। वे इन सब आडंबरों और पाखंडों का खंडन करते हुए, जनता को, संगत को समझाते हैं, कि हे मेरी प्रिय सँगते! इन ब्राह्मणों का साथ छोड़ कर के, मेरे पास आ जाओ, मैं अकेला हूं और मैं आप को इस जीवन को सुखी बनाने का मंत्र बताता हूं।

शब्दार्थ:-- चारि दिन-क्षणिक, कुछ समय का। मेला-मिलन, इकठ्ठ। बामन-यूरेशियन लोग। ब्रह्म-ब्रह्मा का वंशज, ब्रह्मा से ही ब्रह्म, ब्रह्मज्ञान, ब्रह्मपुत्र, ब्रह्मलीन, ब्राह्मण, ब्रह्मजोत आदि शब्द घड़े गए हैं, जो काल्पनिक यूरेशियन अति मानव के नाम पर शब्द शब्दकोश में लिखे गए हैं। चेला-पुजारी का शिष्य। ढिग-पास, मूर्ति के मुंह के समीप। धेला-पुराना सिक्का जो अब तुच्छ है। खेला-खेल। बैकुंठ-स्वर्ग का झांसा। निकसे-निकलना। तेला-तेल। मचे-शोर पड़ना। बहकाए-फुसलाना। बबेला-बबाल, बात का बतंगड़।

नोट:---इस शब्द को जनश्रुति के आधार पर लिखा गया है, क्योंकि गुरु जी के महानिर्वाण के बाद उन का सम्पूर्ण साहित्य ब्राह्मणों ने जला दिया था, जिस के कारण अनुयायियों ने अपने कंठस्थ शब्दों को अपनी भाषा में लिखा है। इस शब्द की भाषा शैली गुरु रविदास जी की भाषा शैली से मेल नहीं खाती है।


बुधवार, 18 अगस्त 2021

सुख सागर सुरतरु चिंतामणि

  जगत गुरु रविदास जी महाराज जब ब्राह्मणों के साथ में विचार गोष्ठी हो रही थी तब जगत गुरु रविदास जी महाराज ब्राह्मणों को इस वाणी के माध्यम से समझाते हैं और उस वक्त सभी ब्राह्मण सतगुरु रविदास जी महाराज के सानिध्य में आकर उनको अपना गुरु मान बैठे थे।आइए आप और हम भी समझते हैं इस बाणी की व्याख्या राम सिंह आदवंशी ने की है

        ।।सुख सागर सुरतरु चिंतामणि।।

                             ।।राग सोरठ।।

ब्राह्मणों ने ऐसे ऐसे अविष्कार किये हुए हैं, कि जिन को सुन कर आदमी तो क्या आदपुरष भी सकते में पड़ जाते होंगे, क्योंकि इन लोगों ने चार चार मुखड़ों वाले आदमियों का खोज की हुई है, कोई शेषनाग की भी रचना की हुई है, जो अपने सारथी को पूर्ण संरक्षण देकर उस की रक्षा करता है। कोई बंदर के मुंह की तरह वानर रूप में ईजाद किया गया है, इसी तरह कई पेड़ भी ऐसे ही खोज डाले हैं, जिन को देव तरु कहा जाता है और कई ऐसी मणियाँ हैं, जो चिंताओं को नष्ट कर देती है, ऐसी देवियाँ भी है जो चिंताओं को खत्म कर देती है मगर उसके  बावजूद भी लोग सुखी नहीं रहते हैं, इन्हीं अलौकिक शक्तियों का पोस्टमार्टम कर के गुरु रविदास जी महाराज ने इस शब्द में फरमाया है:---

सुख सागर सुरतरु चिंतामणि।

कामधेनु बसि जा के।।

चारि पदारथ असतट दसा सिधि।

नव निधि करतल ता के ।।१।।

गुरु रविदास जी महाराज परमपिता परमेश्वर आदपुरुष की सर्वोच्चता का वर्णन करते हुए फरमाते हैं, कि हे ब्राह्मण! जिस सुख के सागर अर्थात आदपुरुष के वश में आप के स्वर्ग की कामधेनु गाय और चिंताओं को नष्ट करने वाले चिंतामणि जैसे पत्थर हैं, कल्प वृक्ष जैसे देव वृक्ष आप की इच्छाओं को पूरे करने वाले हैं, चारों पदार्थ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, नौ निधियां, और अठारह सिद्धियां आदि ये शक्तियाँ काम करतीं हैं, तुम इन का यशोगान करते हैं और उन की ही भक्ति और साधना करते हैं, परंतु जिस आदपुरष ने इन को बनाया है, उस की भक्ति आप लोग क्यों नहीं करते हो?

हरि हरि हरि न जपि रसना।।

अवर सभी तिआगि वचन रचना।।१।।रहाउ।।

गुरु रविदास जी महाराज फरमाते हैं, कि है महा बुद्धिमान ब्राह्मण! तू अपनी जिह्वा से हरि को पाने के लिए सोहम का जाप क्यों नहीं करता है? क्यों आदमी द्वारा निर्मित वेदों, पुराणों आदि धर्म ग्रंथों को त्याग कर केवल आदपुरुष का ही सिमरन क्यों नहीं करता है?

नाना खिआन पुरान वेद विधि।

चौउतीस अखर माहीं।। 

गुरु रविदास जी महाराज ब्राह्मणों को समझाते हुए फरमाते हैं, कि हे ब्राह्मणों! आप कल्पित विधाताओं के वेदों पुराणों के कल्पित विचारों के ऊपर क्यों विश्वास करते हो? देवनागरी लिपि के चौतीस अक्षरों में वेद व्यास आदि लेखकों द्वारा रचे गए परोपकारी साहित्य का गहन अध्ययन कर के, आपस में विचार-विमर्श करके शाश्वत सत्य को क्यों नहीं समझते हो? हरि के सिमरन के बराबर ये सभी रचनाएं व्यर्थ हैं, फिर भी तू हरि का सिमरन क्यों नहीं करता है? कल्पित साहित्य को आप क्यों महत्व दे कर के उन में लिखे गए धार्मिक विचारों को क्यों अपनी पूजा का साधन मानते हो।

बिआस विचारि कहिउ परमारथ।

राम नाम सरि नाहीं।।२।।

गुरु रविदास जी महाराज फरमाते हैं, कि जिस ब्यास ने, वेदों, पुराणों में परोपकारी साहित्य की रचना की है, वह तो राम नाम के समान नहीं है, फिर तू हे ब्राह्मण! इस पर विचार क्यों नहीं करता है? कि ये मनुष्य द्वारा रचित साहित्य अधूरा ज्ञान का भंडार है और निराकार ईश्वर का स्मरण क्यों नहीं करता है?

सहज समाधि उपाधि रहत फुनि।

बडै भागि लिव लागी।। 

गुरु रविदास जी महाराज ब्राह्मण को समझाते हुए बताते हैं, सरल समाधि लगा कर के मन में तनिक भी दुख नहीं रहते हैं अर्थात व्यक्ति सुखी रहता है, हम तो बड़े सौभाग्यशाली हैं कि हमारी लग्न आदपुरष से लगी हुई है, तूँ भी मॉनव कृत कल्पित ग्रथों के अज्ञान से मुक्त हो कर आदपुरष से ही लिव लगाओ, तभी सुखी जीवन जी सकते हो।

कहि रविदास परगासु हिरदै धरि।

जनम मरण भै भागी।।३।।४।।

गुरु रविदास जी महाराज जनमानस को समझाते हुए फरमाते हैं, कि जिस के हृदय में परमपिता परमेश्वर अर्थात आदपुरुष का दिव्य ज्योतिर्ज्ञान प्रकाशमान हो जाता है और वह आदमी उस प्रकाश को हृदय में धारण कर लेता है, उस का जन्म मरण का डर भी खत्म हो जाता है अर्थात उस आदमी को ईश्वर के दर्शन हो जाते हैं, जिस से उसे मृत्यु का कोई भय नहीं सताता है।

शब्दार्थ :--- सुरतरु-देव तरु, कल्प वृक्ष, कल्पित वृक्ष जो बाधाओं को मिटाता है।चिंतामणि-चिंताओं को दूर करने वाली हिंदुओं की कल्पित मणी/पत्थर। कामधेनु-स्वर्ग में रहने वाली हिंदुओं की कल्पित गाय। चारि पदारथ-जीवन में प्रयोग होने वाले चारों पदार्थ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। असट दसा-अठारह। नव निद्धि-नौ खजाने। करतल-हथेलियां। जपहि-जपता है। रसना-रस लेने वाली अर्थात जिह्वा। वचन-कथन, विचार। रचना-लिखित, लेख। नाना-अनेकों। खिआन-प्रसंग, कथा। बिधि-विधाता। चउतीस-देवनागरी लिपि के चौतीस वर्ण। बिआस-व्यास महाऋषि। परमारथ-परोपकार, दूसरों का भला। सहज-सरल, स्वाभाविक। समाधि-एकाग्रता से आदपुरष का ध्यान लगाना। उपाधि-दुख, क्लेश। फुनि-दुबारा, पुनः। हिरदै धरि-मन में धारण करना।

व्याख्या ,रामसिंह आदवंशी।

अध्यक्ष।

विश्व आदधर्म मंडल।

अखिल भारतीय संत शिरोमणि रविदास मिशन

  अभय दास देवबंद।