।।कूप भरियो जैसे दादरा।।
।।गौउड़ी पूर्वी।।
गुरु रविदास जी महाराज ने पिछले शब्द में,
स्पष्ट कर दिया है, कि मैं ने अमूल्य राम नाम का धन अपनी गाड़ी में भरा हुआ है, बाकी सभी ने अपने छकड़े विष से ही भर रखे हैं। केवल मैं ही ज्योतिर्ज्ञान का परिपूर्ण अनुभवी व्यापारी हूं और जो जो लोग ईमानदार, सत्यनिष्ठ, जिज्ञासु हैं, आध्यात्मिक विचार रखते हैं, वही मेरा सामान खरीद कर सच्चा व्यापार कर सकते हैं, मैं उन को सच्चे व्यापार का भेद भी समझा सकता हूँ। गुरु महाराज ने देश विदेश में भ्रमण कर के यह अनुभव किया था, कि सभी धर्मों के बफादार फरमाबरदार, नेतृत्व करने वाले खुद ही पथभ्रष्ट हैं, खुद ही अपने पिछलगुओं को दया के पुजारी नहीं बना सके, आए दिन ये हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, यहूदी, पारसी, आपस में खून खराबा करते रहते हैं, एक दूसरे का बड़ी बेदर्दी से कत्लेआम कर के, दूसरों को अपना गुलाम बनाने के लिए दिन रात अपनी क्रूर बादशाहत कायम करने के लिए लोगों का अंधाधुंध खून बहाते रहते हैं, फिर इन बादशाहों के देवताओं, अवतारों, पीरों, पैग़ंबरों ने इन लोगों को कैसी पढ़त पढ़ाई हुई है? एक देश का शासक दूसरे देश के जान माल को तबाह कर के, खून की नदियाँ बहा कर उस के धन दौलत को लूट कर ले जाते हैं, ये कैसे धर्म हैं? गुरु रविदास जी ने अनुभव किया है कि:---
कूप भरियो जैसे दादिरा।
कछु देश विदेसु ना बूझ।।
ऐसो मेरा मनु बिखिआ बिमोहिआ।
कछु उआर पारू ना सूझ।।१।।
गुरु रविदास जी फरमाते हैं, कि हे परम पिता परमेश्वर! यह सारा संसार ही कुएं के मेंढकों की तरह भरा हुआ है और लोगों को काम, क्रोध, मोह, लोभ और अहंकार के अतिरिक्त कुछ भी दिखाई नहीं देता है। ये कुएं के मेंढक, कुएं को ही अपना संसार समझते हैं। कुएं के बाहर क्या क्या है ? इन्हें कोई पता नहीं चलता है। जब पानी बरसता है तो खूब टरटराते हैं, जब कुँए में पानी कम रह जाता है, तब अपना मुंह बंद कर लेते हैं। ऐसे ही देश विदेश के लोगों का हाल है, ये लोग भी विषय-विकारों में डूबे रहते हैं। काम, क्रोध, मोह, लोभ और अहंकार की धधकती हुई अग्नि में जलते रहते हैं। हे आदपुरष! आप की किसी को कोई याद नहीं आती है। इन को देख कर मेरा मन भी अस्थिर हो कर इन के प्रति मोहित हो रहा है, जिस प्रकार इन मेंडकों को कुएँ से बाहर कुछ दिखाई नहीं देता है, उसी तरह मुझ पर कुछ असर हो रहा है।
कुछ लोगों ने व्याख्या की हुई है कि गुरु रविदास जी अपने लिए फरमाते हैं कि, मैं अज्ञानी हूँ, मैं भी कुएँ के मेंडकों की तरह पांच विकारों के वशीभूत हो कर माया के चक्कर में फंस गया हूँ, मुझे आर पार अर्थ लोक परलोक नजर नहीं आ रहा है, ये कथन गुरु जी के ज्योतिर्ज्ञान के सामने तर्कसंगत नहीं लगता है, क्योंकि गुरु महाराज तो जन्मजात ही ज्योतिर्ज्ञानी थे, उन्होंने जन्म लेते समय ही भानी दाई की आंखों में रोशनी डाल कर अपनी शक्ति का लोहा मनवा लिया था, फिर कोई कैसे लिख सकता कि वे कुएँ के मेंडकों की तरह खुद को लिख रहे हैं, वे तो सांसारिक जीवों को परख कर फरमाते हैं कि हे आदपुरष! कहीं मैं भी इन भटके हुए लोगों को देख कर भटक ना जाऊं, इसलिए आप मुझे दर्शन देते रहो, ताकि मेरा आत्मबल बना रहे, मैं इन भटके हुए लोगों को सन्मार्ग पर लाता रहूं।
बड़े दुख की बात है कि सभी व्याख्याकार गुरु जी को भगत लिखते आए हैं, जब कि विश्व में कोई भी गुरु, पीर, औलिया उन का कोई भी साम्य नहीं रखता, गुरु नानक देव जी भी गुरु रविदास जी महाराज के ही अनुयायी और शिष्य थे, तो फिर कोई कैसे गुरु जी को भगत लिख कर उन के सम्मान को आंच पहुंचा सकता। कोई कैसे उन को कुएँ के मेंढक के साथ तुलना कर सकते हैं। कोई भी इन लिखने वालों का विरोध भी नहीं करता है।
सगल भवन के नाईका।
इक खिन दरसु दिखाई जी।।१।।रहाउ।।
गुरु रविदास महाराज जी ने सारे धर्मों का गहन अध्ययन करने के उपरांत यह अनुभव किया था, कि किसी भी धर्म में कोई भी संपूर्ण गुरु नहीं है और ना ही किसी के पास ज्योतिर्ज्ञान है, कोई भी ऐसा गुरु नहीं है जो मेरा गुरु बनने लायक हो, इसलिए गुरु रविदास जी आदपुरष के पास प्रार्थना करते हैं कि हे प्रभ! आप ही सारी सृष्टि के नायक हो, आप ही मेरे गुरु हैं, मुझे आ कर दर्शन देकर सशक्त बना दो, आप के अतिरिक्त कोई भी मेरी ज्ञान की पिपासा को शांत नहीं कर सकता, इस से गुरु जी के ज्योतिर्ज्ञान के बारे में सिद्ध हो जाता है कि, धरती के ऊपर कोई ऐसा सम्पूर्ण गुरु नहीं था, जो उन को मार्गदर्शन कर सकता था।
गुरु रविदास जी महाराज आद पुरुष के पास संसार की दुर्दशा का वर्णन करते हुए फरमाते हैं कि इस सारी कायनात के मालिक आदपुरष आप ही हैं। आप ही चर-अचर जगत के रक्षक और पालनहार हो, मुझे इन लोगों के उद्धार के लिए अपने ज्योतिर्ज्ञान को स्थिर रखने के लिए एक बार अपने दर्शन दे दो, ताकि मेरे मन का आत्मबल बना रहे और मैं काम, क्रोध, मोह, लोभ और अहंकार में डूबे हुए लोगों को इन फनियरों से बचाने के लिए सच्चा मार्गदर्शन करता रहूं और उन्हें भटकने से रोकता रहूं।
मलिन भई मति माधवा।
तेरी गति लखि न जाई।।
करहु किरपा भरम चुकाई।
मैं सुमति देहु समझाई।।२।।
गुरु रविदास महाराज जी फरमाते हैं, कि देश विदेश के लोगों की बुद्धि भ्रष्ट ही नहीं दूषित हो गई है और पांच ठगों से भ्रमित हो गई है। मैं भी आप की चाल को समझ नहीं पा रहा हूं अर्थात आपके अलौकिक ज्योतिर्ज्ञान को समझ नहीं पा रहा हूं, कृपया करके मेरे भ्रम को भी समाप्त कर दो। मुझे ऐसी सुबुद्धि दो कि मेरी समझ काम कर सके, क्योंकि सामाजिक बुराइयों और काम, क्रोध, मोह, लोभ और अहंकार के कारण सारी सृष्टि पथ भ्रष्ट हो चुकी है और मैं भी उन्हें देख कर भ्रमित हूं, इसलिए मुझे भी सुमति प्रदान करो
जोगीसर पावहि नहीं।
तुअ गन कथनु अपार।।
प्रेम भगति कै कारणे।
कहु रविदास चमार।।३।।१।।
गुरु रविदास महाराज, आदपुरुष की अपरंपार शक्ति को देख कर के, उन के ज्योतिर्ज्ञान को अनुभव करते हुए कहते हैं, कि विश्व में कोई भी योगीश्वर आप का अंत (भेद) नहीं पा सका है और ना ही कोई आज भी नहीं पा सकता है। कोई आप के बारे में पूर्ण रूप से जान नहीं सकता है। मैं रविदास चमार भी जन कल्याण के लिए प्रेम भक्ति के द्वारा आप के दर पर याचक बन कर प्रार्थना कर रहा हूं, कि जनकल्याण के लिए, आप मुझे अपनी दिव्य ज्ञान ज्योति प्रदान करो
शब्दार्थ: कूप-कुआं। दादिरा-मेंढक, ड्डू। देशु-देश। विदेसु-विदेश। बूझ-जानना। बिखिआ-विष, जहर, काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार। बिमोहिआ-आकर्षित होंना, मोहित होंना। आर-नदी का पहला छोर, किनारा, तट। पार-नदी का दूसरा किनारा। सूझ-समझ। सगल- सारा। भवन-घर लक्ष्यार्थ मानव शरीर। नाईका-नायक, नेता अर्थात भगवान। इक-एक। छिन-क्षण। दरसु-दर्शन। मलिन-मैली, दूषित। मति-बुद्धि। माधवा-परमात्मा। गति-चाल, अंतरात्मा की आवाज। लखी-देखी। भरम-संदेह, शक। चुकाई-चुकाना, उठाना, खत्म करना, मिटाना। सुमति-अच्छी बुद्धि। पावहि-पाना, प्राप्त करना। जोगीसर-योगीश्वर। कहु-कहना। तुअ-आप। कथनु-कथन, कहा हुआ। कै-के लिये। कारणे-कारण। अपार-असीम, वहुत वहुत।
रामसिंह आदवंशी।
Abhay das ji