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रविवार, 27 मई 2018

धर्म क्या है

धर्म क्या है यह एक बहुत बड़ा विषय है दरअसल धर्म एक पूजा पद्धति का नाम है कि हम अपने पूजा अर्चना किस प्रकार किस भांति करते हैं या किसमें हम अपने मन की आस्था रखते हैं मेरे हिसाब से इसी को धर्म कहते हैं मगर कुछ लोगों ने इसको एक बिजनेस का रुप दिया जो धर्म को बिजनेस बनाता है तब धर्म नष्ट हो जाता है धरम का मतलब जोड़ना नहीं तोड़ना भी है दरअसल हम मानव जाति का धर्म मानव धर्म है 
जो कहीं हर धर्म से बड़ा धर्म है मानव सेवा सबसे बड़ी सेवा होती है जो इंसान मानव रहकर मानव के बारे में अज्ञान बना रहता है वह इंसान नहीं पशु के समान होता है और धर्म यह नहीं सिखाता कि आपस में बैर रखना मगर इंसान धर्म को खिलौना और एक खिलौने खिलौने को धर्म बताता है इसी आडंबर में हमारा भारत देश आज सदियों से झगड़ा चला रहा है जिस कारण आज देश में छुआछूत अपने चरम सीमा पर पहुंच गई मुझे तो लगता है कि आने वाले समय में कहीं आपसी कलेक्शन दर्शन हो जाए जैसे किसे कहते हैं ग्रह युद्ध और अगर ऐसा हुआ तो यह एक बड़ी पीड़ादायक विनाशलीला होगी इसलिए मैं सभी जो मानव धर्म में विश्वास रखते हैं आपस में सभी प्यार  से रहे और किसी एक धर्म विशेष पर आस्था ना रखकर सभी धर्म का आदर करें क्योंकि सभी धर्म इंसान के बनाए गए हैं किसी परमात्मा ईश्वर नाम नहीं धर्म नहीं बनाए आदमी ने अपने मन की कल्पना से धर्म की व्यवस्था बनाई और मन की कल्पना से ही जीता जागता रहता है और मन मरा सबकुछ मर गया  सतनाम सत साहिब जय भीम जय भारत अभय दास

गुरुवार, 1 दिसंबर 2016

गुरु की स्तुति


                  गुरु की स्तुति
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प्रथम गुरू जी को वंदना द्वितीय बाबा साहब भीमराव जी
            तृतीय मात पिता जिसने जमीन पर उतारे पाओ जी
                          चौथा सिमरु संत सभा जो देते सबको भाव जी
                             सतगुरु स्वामी समनदास जी मेरे कंठ बस जाओ जी
                                           मेरे कंठ बस जाओ जी ।
                                             


आओ गुरु मेरे हर्दय बसो मेरे काटो विघ्न क्लेश
ज्ञान ध्यान मोहे दीजियो मैं तो पूजा करूं हमेंश
                                                                

                                                                     हीरा हरी सा छोड़कर जो करें और की और की आस
                                                                          वह नर  यमपुर जाएंगे  सत भाषे रविदास

      हाथ जोड़ बंदगी करो धरु चरण में शीश जी
मेरी पल-पल खबरें लेते रहो सतगुरु समनदास जगदीश जी

                                          अभय दास

                    स्टार स्टूडियो  देवबन्द ,सहारनपुर  यूपी

सोमवार, 28 नवंबर 2016

सतगुरु समनदास अमर कथा

                                 
                  SatGuru Samandas ji 

 सतगुरू समनदास जी जीवन दर्शन भादों मास की पूर्णिमा सम्वत 1977 (सन 1920) को ग्राम लाख जिला मुजफ्फरनगर उत्तर प्रदेश में चमार जाति में एक दिव्य ज्योति प्रकट हुई जिन्हें वर्तमान समय में सतगुरू स्वामी समनदास जी के नाम से जाना जाता है. स्वामी जी के पूज्य पिताजी फूलसिंह जी एक ईमानदार एवं कर्मवान, गुरू एव सत्संग में निष्ठा रखने वाले थे. स्वामी जी की पूजनीय माता जी श्रीमती लक्ष्मी देवी परम संतोषी एवं शीलवान और अतिथी का सत्कार करने वाली भक्तिभाव से पूर्ण एक कुशल गृहणी थी. स्वामी जी का बचपन का नाम हुक्मचंद था. बाल्यव्यवस्था में ही आप अनेक चमत्कार दिखाने लगे थे. ग्रामवासी एवं दूर दराज से लोग आपके दर्शन करके कष्टों से छूटकारा पाने लगे. स्वामी जी ने 1932 ई. में घर पर ही तपस्या की और घर का त्या कर दिया. उस समय इनकी आयू केवल 12 वर्ष की थी. स्वामी जी योग्य गुरू की खोज में जगह-जगह घूमते रहे पर दो वर्ष भ्रमण करने के बाद गंगाजी के किनारे शुक्रताल की पावन भूमि पर इनकी भेंट स्वामी हरिदास जी से हुई. स्वामी हरिदास जी उस समय के सिद्ध पुरूष एवं उच्चकोटि के संत थे. जब आपने स्वामी हरिदास जी से आग्रह किया कि आपको गुरू की तलाश है तब स्वामी हरिदास जी ने कहा कि - आप तो स्वयं गुरू हैं. आपके गुरू स्वामी ज्ञान भिक्षुक जी से हैं. आप उन्हीं के पास जाएं तब आपने स्वामी ज्ञान भिक्षुक जी से दीक्षा ली. काफी समय से सेवा में लगे रहे और स्वामी ज्ञान भिक्षुक जी ने आपको खेड़ी करमु शामली जिला मुजफ्फरनगर आश्रम पर खड़ी तपस्या का आदेश दियाय. 41 दिन तक यह तपस्या पूरी हुई. इसके बाद स्वामी ज्ञान भिक्षुक जी ने कस्बा कांधला के ग्राम भभीसा में आपको जमीन के नीचे 41 दिन के लिए बैठा दिया. 41 दिन पूरे होने के बाद जब आपको बाहर निकाला गया तब गुरू ज्ञान भिक्षुक जी ने आपको हुक्मचंद पुकार कर समनदास नाम से पुकारा. इसके बाद आपकी प्रसिद्धि बढ़ने लगी. हजारों रोगी आपकी नजर से ही ठीक हो गए. आपकी दिव्य शक्ति का वर्णन नहीं किया जा सकता. आपके द्वारा किये गए चंद कार्य निम्नलिखित हैं - आपने सांप के डसने पर रोशनदास नामक व्यक्ति की रक्षा की एवं उसके प्राण बचाकर अपनी शरण में लिया, वर्तमान में उन्हें महात्मा रोशनदास जी के नाम से श्री गुरु रविदास आश्रम काजीपुर पर नियुक्त किया गया है. कई निःसंतान परिवारों को आपने अपनी कृपा से पुत्र धन प्रदान किया है. शारिरीक या मानसिक पीड़ा से युक्त हजारों लोगों को जीवनदान दिया. गांव लाख में 135 फिट ऊंचा श्री गुरु रविदास मंदिर का निर्माण किया गया. जगह-जगह पर लगभग पूरे भारतवर्ष में 300 गुरु रविदास आश्रमों का निर्माण करवाया. श्री गुरु रविदास जी महाराज द्वारा दिये गये उपदेशों और शिक्षाओं का प्रचार प्रसार आज वर्तमान में भी कर रहे हैं. आपने सन 1971 में गुरु रविदास आश्रम ऊन का पंचीकरण कराया. सन 2002 में अखिल भारतीय संत शिरमोणि गुरु रविदास मिशन की स्थापना की. आज संपूर्ण भारत में आप वर्तमान में सत्य का प्रचार कर जीवों का उद्धार कर रहे हैं 




  •                   Bani Satguru Ravidas ji ki


  •  जाति-जाति में जाति हैं, जो केतन के पात।
  • रैदास मनुष ना जुड़ सके जब तक जाति न जात।।

  • * कृस्न, करीम, राम, हरि, राघव, जब लग एक न पेखा। 
  • वेद कतेब कुरान, पुरानन, सहज एक नहिं देखा।।

  • * कह रैदास तेरी भगति.
  • अबिगत नाथ निरंजन देवा।
  • मैं का जांनूं तुम्हारी सेवा।। टेक।।


  • बांधू न बंधन छांऊं न छाया, 
  • तुमहीं सेऊं निरंजन राया।।1।।

  • चरन पताल सीस असमांना, 
  • सो ठाकुर कैसैं संपटि समांना।।2।।

  • सिव सनिकादिक अंत न पाया,..



  • Sat Gur Ravidas ji Maharaj Ka jivan 
  • रविदास की जीवनी

    आरंभिक जीवन
    संत रविदास का जन्म भारत के यूपी के वाराणसी शहर में माता कालसा देवी और बाबा संतोख दास जी के घर 15 वीं शताब्दी में हुआ था। हालाँकि, उनके जन्म की तारीख को लेकर विवाद भी है क्योंकि कुछ का मानना है कि ये 1376, 1377 और कुछ का कहना है कि ये 1399 सीइ में हुआ था। कुछ अध्येता के आँकड़ों के अनुसार ऐसा अनुमान लगाया गया था कि रविदास का पूरा जीवन काल 15वीं से 16वीं शताब्दी सीइ में 1450 से 1520 के बीच तक रहा।
    रविदास के पिता मल साम्राज्य के राजा नगर के सरपंच थे और खुद जूतों का व्यापार और उसकी मरम्मत का कार्य करते थे। अपने बचपन से ही रविदास बेहद बहादुर और ईश्वर के बहुत बड़े भक्त थे लेकिन बाद में उन्हें उच्च जाति के द्वारा उत्पन्न भेदभाव की वजह से बहुत संघर्ष करना पड़ा जिसका उन्होंने सामना किया और अपने लेखन के द्वारा रविदास ने लोगों को जीवन के इस तथ्य से अवगत करवाया। उन्होंने हमेशा लोगों को सिखाया कि अपने पड़ोसियों को बिना भेद-भेदभाव के प्यार करो।
    पूरी दुनिया में भाईचारा और शांति की स्थापना के साथ ही उनके अनुयायीयों को दी गयी महान शिक्षा को याद करने के लिये भी संत रविदास का जन्म दिवस का मनाया जाता है। अपने अध्यापन के आरंभिक दिनों में काशी में रहने वाले रुढ़ीवादी ब्राह्मणों के द्वारा उनकी प्रसिद्धि को हमेशा रोका जाता था क्योंकि संत रविदास अस्पृश्यता के भी गुरु थे। सामाजिक व्यवस्था को खराब करने के लिये राजा के सामने लोगों द्वारा उनकी शिकायत की गयी थी। रविदास को भगवान के बारे में बात करने से, साथ ही उनका अनुसरण करने वाले लोगों को अध्यापन और सलाह देने के लिये भी प्रतिबंधित किया गया था।
    रविदास की प्रारंभिक शिक्षा
    बचपन में संत रविदास अपने गुरु पंडित शारदा नंद के पाठशाला गये जिनको बाद में कुछ उच्च जाति के लोगों द्वारा रोका किया गया था वहाँ दाखिला लेने से। हालाँकि पंडित शारदा ने यह महसूस किया कि रविदास कोई सामान्य बालक न होकर एक ईश्वर के द्वारा भेजी गयी संतान है अत: पंडित शारदानंद ने रविदास को अपनी पाठशाला में दाखिला दिया और उनकी शिक्षा की शुरुआत हुयी। वो बहुत ही तेज और होनहार थे और अपने गुरु के सिखाने से ज्यादा प्राप्त करते थे। पंडित शारदा नंद उनसे और उनके व्यवहार से बहुत प्रभावित रहते थे उनका विचार था कि एक दिन रविदास आध्यात्मिक रुप से प्रबुद्ध और महान सामाजिक सुधारक के रुप में जाने जायेंगे।
    पाठशाला में पढ़ने के दौरान रविदास पंडित शारदानंद के पुत्र के मित्र बन गये। एक दिन दोनों लोग एक साथ लुका-छिपी खेल रहे थे, पहली बार रविदास जी जीते और दूसरी बार उनके मित्र की जीत हुयी। अगली बार, रविदास जी की बारी थी लेकिन अंधेरा होने की वजह से वो लोग खेल को पूरा नहीं कर सके उसके बाद दोनों ने खेल को अगले दिन सुबह जारी रखने का फैसला किया। अगली सुबह रविदास जी तो आये लेकिन उनके मित्र नहीं आये। वो लंबे समय तक इंतजार करने के बाद अपने उसी मित्र के घर गये और देखा कि उनके मित्र के माता-पिता और पड़ोसी रो रहे थे।
    उन्होंने उन्हीं में से एक से इसका कारण पूछा और अपने मित्र की मौत की खबर सुनकर हक्का-बक्का रह गये। उसके बाद उनके गुरु ने संत रविदास को अपने बेटे के लाश के स्थान पर पहुँचाया, वहाँ पहुँचने पर रविदास ने अपने मित्र से कहा कि उठो ये सोने का समय नहीं है दोस्त, ये तो लुका-छिपी खेलने का समय है। जैसै कि जन्म से ही गुरु रविदास दैवीय शक्तियों से समृद्ध थे, रविदास के ये शब्द सुनते ही उनके मित्र फिर से जी उठे। इस आश्चर्यजनक पल को देखने के बाद उनके माता-पिता और पड़ोसी चकित रह गये।
    वैवाहिक जीवन
    भगवान के प्रति उनके प्यार और भक्ति की वजह से वो अपने पेशेवर पारिवारिक व्यवसाय से नहीं जुड़ पा रहे थे और ये उनके माता-पिता की चिंता का बड़ा कारण था। अपने पारिवारिक व्यवसाय से जुड़ने के लिये इनके माता-पिता ने इनका विवाह काफी कम उम्र में ही श्रीमती लोना देवी से कर दिया जिसके बाद रविदास को पुत्र रत्न की प्रति हुयी जिसका नाम विजयदास पड़ा।
    शादी के बाद भी संत रविदास सांसारिक मोह की वजह से पूरी तरह से अपने पारिवारिक व्यवसाय के ऊपर ध्यान नहीं दे पा रहे थे। उनके इस व्यवहार से क्षुब्द होकर उनके पिता ने सांसारिक जीवन को निभाने के लिये बिना किसी मदद के उनको खुद से और पारिवारिक संपत्ति से अलग कर दिया। इस घटना के बाद रविदास अपने ही घर के पीछे रहने लगे और पूरी तरह से अपनी सामाजिक मामलों से जुड़ गये।
    बाद का जीवन
    बाद में रविदास जी भगवान राम के विभिन्न स्वरुप राम, रघुनाथ, राजा राम चन्द्र, कृष्णा, गोविन्द आदि के नामों का इस्तेमाल अपनी भावनाओं को उजागर करने के लिये करने लगे और उनके महान अनुयायी बन गये।
    बेगमपुरा शहर से उनके संबंध
    बिना किसी दुख के शांति और इंसानियत के साथ एक शहर के रुप में गुरु रविदास जी द्वारा बेगमपुरा शहर को बसाया गया। अपनी कविताओं को लिखने के दौरान रविदास जी द्वारा बेगमपुरा शहर को एक आदर्श के रुप में प्रस्तुत किया गया था जहाँ पर उन्होंने बताया कि एक ऐसा शहर जो बिना किसी दुख, दर्द या डर के और एक जमीन है जहाँ सभी लोग बिना किसी भेदभाव, गराबी और जाति अपमान के रहते है। एक ऐसी जगह जहाँ कोई शुल्क नहीं देता, कोई भय, चिंता या प्रताड़ना नहीं हो।
    मीरा बाई से उनका जुड़ाव
    संत रविदास जी को मीरा बाई के आध्यात्मिक गुरु के रुप में माना जाता है जो कि राजस्थान के राजा की पुत्री और चित्तौड़ की रानी थी। वो संत रविदास के अध्यापन से बेहद प्रभावित थी और उनकी बहुत बड़ी अनुयायी बनी। अपने गुरु के सम्मान में मीरा बाई ने कुछ पंक्तियाँ लिखी है-
    “गुरु मिलीया रविदास जी-”।
    वो अपने माता-पिता की एक मात्र संतान थी जो बाद में चितौड़ की रानी बनी। मीरा बाई ने बचपन में ही अपनी माँ को खो दिया जिसके बाद वो अपने दादा जी के संरक्षण में आ गयी जो कि रविदास जी के अनुयायी थे। वो अपने दादा जी के साथ कई बार गुरु रविदास से मिली और उनसे काफी प्रभावित हुयी। अपने विवाह के बाद, उन्हें और उनके पति को गुरु जी से आशीर्वाद प्राप्त हुआ। बाद में मीराबाई ने अपने पति और ससुराल पक्ष के लोगों की सहमति से गुरु जी को अपने वास्तविक गुरु के रुप में स्वीकार किया। इसके बाद उन्होंने गुरु जी के सभी धर्मों के उपदेशों को सुनना शुरु कर दिया जिसने उनके ऊपर गहरा प्रभाव छोड़ा और वो प्रभु भक्ति की ओर आकर्षित हो गयी। कृष्ण प्रेम में डूबी मीराबाई भक्ति गीत गाने लगी और दैवीय शक्ति का गुणगान करने लगी।
    अपने गीतों में वो कुछ इस तरह कहती थी:
    “गुरु मिलीया रविदास जी दीनी ज्ञान की गुटकी,
    चोट लगी निजनाम हरी की महारे हिवरे खटकी”।
    दिनों-दिन वो ध्यान की ओर आकर्षित हो रही थी और वो अब संतों के साथ रहने लगी थी। उनके पति की मृत्यु के बाद उनके देवर और ससुराल के लोग उन्हें देखने आये लेकिन वो उन लोगों के सामने बिल्कुल भी व्यग्र और नरम नहीं पड़ी। बल्कि उन्हें तो आधी रात को उन लोगों के द्वारा गंभीरी नदी में फेंक दिया गया था लेकिन गुरु रविदास जी के आशीर्वाद से वो बच गयी।
    एक बार अपने देवर के द्वारा दिये गये जहरीले दूध को गुरु जी द्वारा अमृत मान कर पी गयी और खुद को धन्य समझा। उन्होंने कहा कि:
    “विष को प्याला राना जी मिलाय द्यो
    मेरथानी ने पाये
    कर चरणामित् पी गयी रे,
    गुण गोविन्द गाये”।
    संत रविदास के जीवन की कुछ महत्वपूर्णं घटनाएँ
    एक बार गुरु जी के कुछ विद्यार्थी और अनुयायी ने पवित्र नदी गंगा में स्नान के लिये पूछा तो उन्होंने ये कह कर मना किया कि उन्होंने पहले से ही अपने एक ग्राहक को जूता देने का वादा कर दिया है तो अब वही उनकी प्राथमिक जिम्मेदारी है। रविदास जी के एक विद्यार्थी ने उनसे दुबारा निवेदन किया तब उन्होंने कहा उनका मानना है कि “मन चंगा तो कठौती में गंगा” मतलब शरीर को आत्मा से पवित्र होने की जरुरत है ना कि किसी पवित्र नदी में नहाने से, अगर हमारी आत्मा और ह्दय शुद्ध है तो हम पूरी तरह से पवित्र है चाहे हम घर में ही क्यों न नहाये।
    एक बार उन्होंने अपने एक ब्राहमण मित्र की रक्षा एक भूखे शेर से की थी जिसके बाद वो दोनों गहरे साथी बन गये। हालाँकि दूसरे ब्राहमण लोग इस दोस्ती से जलते थे सो उन्होंने इस बात की शिकायत राजा से कर दी। रविदास जी के उस ब्राहमण मित्र को राजा ने अपने दरबार में बुलाया और भूखे शेर द्वारा मार डालने का हुक्म दिया। शेर जल्दी से उस ब्राहमण लड़के को मारने के लिये आया लेकिन गुरु रविदास को उस लड़के को बचाने के लिये खड़े देख शेर थोड़ा शांत हुआ। शेर वहाँ से चला गया और गुरु रविदास अपने मित्र को अपने घर ले गये। इस बात से राजा और ब्राह्मण लोग बेहद शर्मिंदा हुये और वो सभी गुरु रविदास के अनुयायी बन गये।
    सामाजिक मुद्दों में गुरु रविदास की सहभागिता
    वास्तविक धर्म को बचाने के लिये रविदास जी को ईश्वर द्वारा धरती पर भेजा गया था क्योंकि उस समय सामाजिक और धार्मिक स्वरुप बेहद दु:खद था। क्योंकि इंसानों द्वारा ही इंसानों के लिये ही रंग, जाति, धर्म तथा सामाजिक मान्यताओं का भेदभाव किया जा चुका था। वो बहुत ही बहादुरी के साथ सभी भेदभाव को स्वीकार करते और लोगों को वास्तविक मान्यताओं और जाति के बारे में बताते। वो लोगों को सिखाते कि कोई भी अपने जाति या धर्म के लिये नहीं जाना जाता, इंसान अपने कर्म से पहचाना जाता है। गुरु रविदास जी समाज में अस्पृश्यता के खिलाफ भी लड़े जो उच्च जाति द्वारा निम्न जाति के लोगों के साथ किया जाता था।
    उनके समय में निम्न जाति के लोगों की उपेक्षा होती थी, वो समाज में उच्च जाति के लोगों की तरह दिन में कहीं भी आ-जा नहीं सकते थे, उनके बच्चे स्कूलों में पढ़ नहीं सकते थे, मंदिरों में नहीं जा सकते थे, उन्हें पक्के मकान के बजाय सिर्फ झोपड़ियों में ही रहने की आजादी थी और भी ऐसे कई प्रतिबंध थे जो बिल्कुल अनुचित थे। इस तरह की सामाजिक समयस्याओं को देखकर गुरु जी ने निम्न जाति के लोगों की बुरी परिस्थिति को हमेशा के लिये दूर करने के लिये हर एक को आध्यात्मिक संदेश देना शुरु कर दिया।
    उन्होंने लोगों को संदेश दिया कि “ईश्वर ने इंसान बनाया है ना कि इंसान ने ईश्वर बनाया है” अर्थात इस धरती पर सभी को भगवान ने बनाया है और सभी के अधिकार समान है। इस सामाजिक परिस्थिति के संदर्भ में, संत गुरु रविदास जी ने लोगों को वैश्विक भाईचारा और सहिष्णुता का ज्ञान दिया। गुरुजी के अध्यापन से प्रभावित होकर चितौड़ साम्राज्य के राजा और रानी उनके अनुयायी बन गये।
    सिक्ख धर्म के लिये गुरु जी का योगदान
    सिक्ख धर्मग्रंथ में उनके पद, भक्ति गीत, और दूसरे लेखन (41 पद) आदि दिये गये थे, गुरु ग्रंथ साहिब जो कि पाँचवें सिक्ख गुरु अर्जन देव द्वारा संकलित की गयी। सामान्यत: रविदास जी के अध्यापन के अनुयायी को रविदासीया कहा जाता है और रविदासीया के समूह को अध्यापन को रविदासीया पंथ कहा जाता है।
    गुरु ग्रंथ साहिब में उनके द्वारा लिखा गया 41 पवित्र लेख है जो इस प्रकार है; “रागा-सिरी(1), गौरी(5), असा(6), गुजारी(1), सोरथ(7), धनसरी(3), जैतसारी(1), सुही(3), बिलावल(2), गौंड(2), रामकली(1), मारु(2), केदारा(1), भाईरऊ(1), बसंत(1), और मलहार(3)”।
    ईश्वर के द्वारा उनकी महानता की जाँच की गयी थी
    वो अपने समय के महान संत थे और एक आम व्यक्ति की तरह जीवन को जीने की वरीयता देते है। कई बड़े राजा-रानियों और दूसरे समृद्ध लोग उनके बड़े अनुयायी थे लेकिन वो किसी से भी किसी प्रकार का धन या उपहार नहीं स्वीकारते थे। एक दिन भगवान के द्वारा उनके अंदर एक आम इंसान के लालच को परखा गया, एक दर्शनशास्त्री गुरु रविदास जी के पास एक पत्थर ले कर आये और उसके बारे में आश्चर्यजनक बात बतायी कि ये किसी भी लोहे को सोने में बदल सकता सकता है। उस दर्शनशास्त्री ने गुरु रविदास को उस पत्थर को लेने के लिये दबाव दिया और साधारण झोपड़े की जगह बड़ी-बड़ी इमारतें बनाने को कहा। लेकिन उन्होंने ऐसा करने से मना कर दिया।
    उस दर्शनशास्त्री ने फिर से उस पत्थर को रखने के लिये गुरुजी पर दबाव डाला और कहा कि मैं इसे लौटते वक्त वापस ले लूँगा साथ ही इसको अपनी झोपड़ी के किसी खास जगह पर रखने को कहा। गुरु जी ने उसकी ये बात मान ली। वो दर्शनशास्त्री कई वर्षों बाद लौटा तो पाया कि वो पत्थर उसी तरह रखा हुआ है। गुरुजी के इस अटलता और धन के प्रति इस विकर्षणता से वो बहुत खुश हुए। उन्होंने वो कीमती पत्थर लिया और वहाँ से गायब हो गये। गुरु रविदास ने हमेशा अपने अनुयायीयों को सिखाया कि कभी धन के लिये लालची मत बनो, धन कभी स्थायी नहीं होता, इसके बजाय आजीविका के लिये कड़ी मेहनत करो।
    एक बार जब उनको और दूसरे दलितों को पूजा करने के जुर्म में काशी नरेश के द्वारा उनके दरबार में कुछ ब्राह्मणों की शिकायत पर बुलाया गया था, तो ये ही वो व्यक्ति थे जिन्होंने सभी गैरजरुरी धार्मिक संस्कारों को हटाने के द्वारा पूजा की प्रकिया को आसान बना दिया। संत रविदास को राजा के दरबार में प्रस्तुत किया गया जहाँ गुरुजी और पंडित पुजारी से फैसले वाले दिन अपने-अपने इष्ट देव की मूर्ति को गंगा नदी के घाट पर लाने को कहा गया।
    राजा ने ये घोषणा की कि अगर किसी एक की मूर्ति नदी में तैरेगी तो वो सच्चा पुजारी होगा अन्यथा झूठा होगा। दोनों गंगा नदी के किनारे घाट पर पहुँचे और राजा की घोषणा के अनुसार कार्य करने लगे। ब्राह्मण ने हल्के भार वाली सूती कपड़े में लपेटी हुयी भगवान की मूर्ति लायी थी वहीं संत रविदास ने 40 कि.ग्रा की चाकोर आकार की मूर्ती ले आयी थी। राजा के समक्ष गंगा नदी के राजघाट पर इस कार्यक्रम को देखने के लिये बहुत बड़ी भीड़ उमड़ी थी।
    पहला मौका ब्राह्मण पुजारी को दिया गया, पुजारी जी ने ढ़ेर सारे मंत्र-उच्चारण के साथ मूर्ती को गंगा जी ने प्रवाहित किया लेकिन वो गहरे पानी में डूब गयी। उसी तरह दूसरा मौका संत रविदास का आया, गुरु जी ने मूर्ती को अपने कंधों पर लिया और शिष्टता के साथ उसे पानी में रख दिया जो कि पानी की सतह पर तैरने लगा। इस प्रकिया के खत्म होने के बाद ये फैसला हुआ कि ब्राह्मण झूठा पुजारी था और गुरु रविदास सच्चे भक्त थे।
    दलितों को पूजा के लिये मिले अधिकार से खुश होकर सभी लोग उनके पाँव को स्पर्श करने लगे। तब से, काशी नरेश और दूसरे लोग जो कि गुरु जी के खिलाफ थे, अब उनका सम्मान और अनुसरण करने लगे। उस खास खुशी के और विजयी पल को दरबार की दिवारों पर भविष्य के लिये सुनहरे अक्षरों से लिख दिया गया।
    संत रविदास को कुष्ठरोग को ठीक करने के लिये प्राकृतिक शक्ति मिली हुई थी
    समाज में उनकी महान प्राकृतिक शक्तियों से भरी गज़ब की क्रिया के बाद ईश्वर के प्रति उनकी सच्चाई से प्रभावित होकर हर जाति और धर्म के लोगों पर उनका प्रभाव पड़ा और सभी गुरु जी के मजबूत विद्यार्थी, अनुयायी और भक्त बन गये। बहुत साल पहले उन्होंने अपने अनुयायीयों को उपदेश दिया था और तब एक धनी सेठ भी वहाँ पहुँचा मनुष्य के जन्म के महत्व के ऊपर धार्मिक उपदेश को सुनने के लिये।
    धार्मिक उपदेश के अंत में गुरु जी ने सभी को प्रसाद के रुप में अपने मिट्टी के बर्तन से पवित्र पानी दिया। लोगों ने उसको ग्रहण किया और पीना शुरु किया हालाँकि धनी सेठ ने उस पानी को गंदा समझ कर अपने पीछे फेंक दिया जो बराबर रुप से उसके पैरों और जमींन पर गिर गया। वो अपने घर गया और उस कपड़े को कुष्ठ रोग से पीड़ित एक गरीब आदमी को दे दिया। उस कपड़े को पहनते ही उस आदमी के पूरे शरीर को आराम महसूस होने लगा जबकि उसके जख्म जल्दी भरने लगे और वो जल्दी ठीक हो गया।
    हालाँकि धनी सेठ को कुष्ठ रोग हो गया जो कि महँगे उपचार और अनुभवी और योग्य वैद्य द्वारा भी ठीक नहीं हो सका। उसकी स्थिति दिनों-दिन बिगड़ती चली गयी तब उसे अपनी गलतियों का एहसास हुआ और वो गुरु जी के पास माफी माँगने के लिये गया और जख्मों को ठीक करने के लिये गुरु जी से वो पवित्र जल प्राप्त किया। चूँकि गुरु जी बेहद दयालु थे इसलिये उसको माफ करने के साथ ही ठीक होने का ढ़ेर सारा आशीर्वाद भी दिया। अंतत: वो धनी सेठ और उसका पूरा परिवार संत रविदास का भक्त हो गया।
    संत रविदास का सकारात्मक नज़रिया
    उनके समय में शुद्रों (अस्पृश्य) को ब्राह्मणों की तरह जनेऊ, माथे पर तिलक और दूसरे धार्मिक संस्कारों की आजादी नहीं थी। संत रविदास एक महान व्यक्ति थे जो समाज में अस्पृश्यों के बराबरी के अधिकार के लिये उन सभी निषेधों के खिलाफ थे जो उन पर रोक लगाती थी। उन्होंने वो सभी क्रियाएँ जैसे जनेऊ धारण करना, धोती पहनना, तिलक लगाना आदि निम्न जाति के लोगों के साथ शुरु किया जो उन पर प्रतिबंधित था।
    ब्राह्मण लोग उनकी इस बात से नाराज थे और समाज में अस्पृश्यों के लिये ऐसे कार्यों को जाँचने का प्रयास किया। हालाँकि गुरु रविदास जी ने हर बुरी परिस्थिति का बहादुरी के साथ सामना किया और बेहद विनम्रता से लोगों का जवाब दिया। अस्पृश्य होने के बावजूद भी जनेऊ पहनने के कारण ब्राह्मणों की शिकायत पर उन्हें राजा के दरबार में बुलाया गया। वहाँ उपस्थित होकर उन्होंने कहा कि अस्पृश्यों को भी समाज में बराबरी का अधिकार मिलना चाहिये क्योंकि उनके शरीर में भी दूसरों की तरह खून का रंग लाल और पवित्र आत्मा होती है
    संत रविदास ने तुरंत अपनी छाती पर एक गहरी चोट की और उस पर चार युग जैसे सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर और कलयुग की तरह सोना, चाँदी, ताँबा और सूती के चार जनेऊ खींच दिया। राजा समेत सभी लोग अचंभित रह गये और गुरु जी के सम्मान में सभी उनके चरणों को छूने लगे। राजा को अपने बचपने जैसे व्यवहार पर बहुत शर्मिंदगी महसूस हुयी और उन्होंने इसके लिये माफी माँगी। गुरु जी ने सभी माफ करते हुए कहा कि जनेऊ धारण करने का ये मतलब नहीं कि कोई भगवान को प्राप्त कर लेता है। इस कार्य में वो केवल इसलिये शामिल हुए ताकि वो लोगों को वास्तविकता और सच्चाई बता सके। गुरु जी ने जनेऊ निकाला और राजा को दे दिया इसके बाद उन्होंने कभी जनेऊ और तिलक का इस्तेमाल नहीं किया।
    कुंभ उत्सव पर एक कार्यक्रम
    एक बार पंडित गंगा राम गुरु जी से मिले और उनका सम्मान किया। वो हरिद्वार में कुंभ उत्सव में जा रहे थे गुरु जी ने उनसे कहा कि ये सिक्का आप गंगा माता को दे दीजीयेगा अगर वो इसे आपके हाथों से स्वीकार करें। पंजित जी ने बड़ी सहजता से इसे ले लिया और वहाँ से हरिद्वार चले गये। वो वहाँ पर नहाये और वापस अपने घर लौटने लगे बिना गुरु जी का सिक्का गंगा माता को दिये।
    वो अपने रास्ते में थोड़ा कमजोर होकर बैठ गये और महसूस किया कि वो कुछ भूल रहे हैं, वो दुबारा से नदी के किनारे वापस गये और जोर से चिल्लाए माता, गंगा माँ पानी से बाहर निकली और उनके अपने हाथ से सिक्के को स्वीकार किया। माँ गंगा ने संत रविदास के लिये सोने के कँगन भेजे। पंडित गंगा राम घर वापस आये वो कँगन गुरु जी के बजाय अपनी पत्नी को दे दिया।
    एक दिन पंडित जी की पत्नी उस कँगन को बाजार में बेचने के लिये गयी। सोनार चालाक था, सो उसने कँगन को राजा और राजा ने रानी को दिखाने का फैसला किया। रानी ने उस कँगन को बहुत पसंद किया और एक और लाने को कहा। राजा ने घोषणा की कि कोई इस तरह के कँगन नहीं लेगा, पंडित अपने किये पर बहुत शर्मिंदा था क्योंकि उसने गुरुजी को धोखा दिया था। वो रविदास जी से मिला और माफी के लिये निवेदन किया। गुरु जी ने उससे कहा कि “मन चंगा तो कठौती में गंगा” ये लो दूसरे कँगन जो पानी से भरे जल में मिट्टी के बर्तन में गंगा के रुप में यहाँ बह रही है। गुरु जी की इस दैवीय शक्ति को देखकर वो गुरु जी का भक्त बन गया।
    उनके पिता के मौत के समय की घटना
    रविदास की पिता की मृत्यु के बाद उन्होंने अपने पड़ोसियों से विनती की कि वो गंगा नदी के किनारे अंतिम रिवाज़ में मदद करें। हालाँकि ब्राह्मण रिती के संदर्भ में खिलाफ थे कि वो गंगा के जल से स्नान करेंगे जो रस्म की जगह से मुख्य शहर की ओर जाता है और वो प्रदूषित हो जायेगा। गुरु जी बहुत दुखी और मजबूर हो गये हालाँकि उन्होंने कभी भी अपना धैर्य नहीं खोया और अपने पिता की आत्मा की शांति के लिये प्रार्थना करने लगे। अचानक से वातावरण में एक भयानक तूफान आया और नदी का पानी उल्टी दिशा में बहना प्रारंभ हो गया और जल की एक गहरी तरंग आयी और लाश को अपने साथ ले गयी। इस भवंडर ने आसपास की सभी चीजों को सोख लिया। तब से, गंगा का पानी उल्टी दिशा में बह रहा है।
    कैसे बाबर प्रभावित हुए रविदास के अध्यापन से
    इतिहास के अनुसार बाबर मुगल साम्राज्य का पहला राजा था जो 1526 में पानीपत का युद्ध जीतने के बाद दिल्ली के सिहांसन पर बैठा जहाँ उसने भगवान के भरोसे के लिये लाखों लोगों को कुर्बान कर दिया। वो पहले से ही संत रविदास की दैवीय शक्तियों से परिचित था और फैसला किया कि एक दिन वो हुमायुँ के साथ गुरु जी से मिलेगा। वो वहाँ गया और गुरु जी को सम्मान देने के लिये उनके पैर छूए हालाँकि; आशीर्वाद के बजाय उसे गुरु जी से सजा मिली क्योंकि उसने लाखों निर्दोष लोगों की हत्याएँ की थी। गुरु जी ने उसे गहराई से समझाया जिसने बाबर को बहुत प्रभावित किया और इसके बाद वो भी संत रविदास का अनुयायी बन गया तथा दिल्ली और आगरा के गरीबों की सेवा के द्वारा समाज सेवा करने लगा।

    संत रविदास की मृत्यु

    समाज में बराबरी, सभी भगवान एक है, इंसानियत, उनकी अच्छाई और बहुत से कारणों की वजह से बदलते समय के साथ संत रविदास के अनुयायीयों की संख्या बढ़ती ही जा रही थी। दूसरी तरफ, कुछ ब्राह्मण और पीरन दित्ता मिरासी गुरु जी को मारने की योजना बना रहे थे इस वजह से उन लोगों ने गाँव से दूर एक एकांत जगह पर मिलने का समय तय किया। किसी विषय पर चर्चा के लिये उन लोगों ने गुरु जी को वहाँ पर बुलाया जहाँ उन्होंने गुरु जी की हत्या की साजिश रची थी हालाँकि गुरु जी को अपनी दैवीय शक्ति की वजह से पहले से ही सब कुछ पता चल गया था
    जैसे ही चर्चा शुरु हुई, गुरु जी उन्ही के एक साथी भल्ला नाथ के रुप में दिखायी दिये जो कि गलती से तब मारा गया था। बाद में जब गुरु जी ने अपने झोपड़े में शंखनाद किया, तो सभी हत्यारे गुरु जी को जिंदा देख भौंचक्के रह गये तब वो हत्या की जगह पर गये जहाँ पर उन्होंने संत रविदास की जगह अपने ही साथी भल्ला नाथ की लाश पायी। उन सभी को अपने कृत्य पर पछतावा हुआ और वो लोग गुरु जी से माफी माँगने उनके झोपड़े में गये।
    हालाँकि, उनके कुछ भक्तों का मानना है कि गुरु जी की मृत्यु प्राकृतिक रुप से 120 या 126 साल में हो गयी थी। कुछ का मानना है उनका निधन वाराणसी में 1540 एडी में हुआ था।