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सोमवार, 13 अगस्त 2018

एतिहासिक संदेश भारतीय सविधान रचेयता के नाम

        एतिहासिक संदेश भारतीय  सविधान रचेयता के नाम
डॉ. आंबेडकर दलित राजनीति के जनक माने जाते हैं क्योंकि उन्होंने ही सब से पहले दलितों के लिए राजनैतिक अधिकारों की लडाई लड़ी थी. उन्होंने ही भारत के भावी संविधान के निर्माण के सम्बन्ध में लन्दन में 1930-32 में हुए गोलमेज़ सम्मलेन में दलितों को एक अलग अल्पसंख्यक समूह के रूप में मान्यता दिलाई थी और अन्य अल्पसंख्यकों मुस्लिम, सिख, ईसाई की तरह अलग अधिकार दिए जाने की मांग को स्वीकार करवाया था. 1932 में जब “कम्युनल अवार्ड” के अंतर्गत दलितों को भी अन्य अल्पसंख्यकों की तरह अलग मताधिकार मिला तो गाँधी जी ने उस के विरोध में यह कहते हुए कि इस से हिन्दू समाज टूट जायेगा, आमरण अनशन की धमकी दे डाली जब कि उन्हें अन्य अल्पसंख्यकों को यह अधिकार दिए जाने में कोई आपत्ति नहीं थी. अंत में अनुचित दबाव में मजबूर होकर डॉ. आंबेडकर को गांधी जी की जान बचाने के लिए “पूना पैक्ट” करना पड़ा और दलितों के राजनैतिक स्वतंत्रता के अधिकार की बलि देनी पड़ी तथा संयुक्त चुनाव क्षेत्र और आरक्षित सीटें स्वीकार करनी पड़ीं.
गोलमेज़ कांफ्रेंस में लिए गए निर्णय के अनुसार नया कानून “गवर्नमेंट आफ इंडिया 1935 एक्ट” 1936 में लागू हुआ. इस के अंतर्गत 1937 में पहला चुनाव कराने की घोषणा की गयी. इस चुनाव में भाग लेने के लिए डॉ. आंबेडकर ने अगस्त 1936 में इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी (स्वतंत्र मजदूर पार्टी) की स्थापना की और बम्बई प्रेज़ीडैन्सी में 17 सीटों पर चुनाव लड़ा और 15 सीटें जीतीं. इस के बाद उन्होंने 19 जुलाई, 1942 को आल इंडिया शैडयूल्ड कास्टस फेडरेशन बनायी. इस पार्टी से उन्होंने 1946 और 1952 में चुनाव लड़े परन्तु इस में पूना पैकट के दुशप्रभाव के कारण उन्हें कोई विशेष सफलता नहीं मिली. फलस्वरूप 1952 और 1954 के चुनाव में डॉ. आंबेडकर स्वयं हार गए. अंत में उन्होंने 14 अक्तूबर, 1956 को नागपुर में आल इंडिया शैडयूल्ड कास्टस फेडरेशन को भंग करके रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया (आरपीआई) नाम से नयी पार्टी बनाने की घोषणा की. इस के लिए उन्होंने इस पार्टी का संविधान भी बनाया. वास्तव में यह पार्टी उन के परिनिर्वाण के बाद 3 अक्तूबर, 1957 को अस्तित्व में आई. इस विवरण के अनुसार बाबा साहेब ने अपने जीवन काल में तीन राजनैतिक पार्टियाँ बनायीं. इन में से वर्तमान में आरपीआई अलग अलग गुटों के रूप में मौजूद है.
वर्तमान संद्धर्भ में यह देखना ज़रूरी है कि बाबा साहेब ने जिन राजनैतिक पार्टियों के माध्यम से राजनीति की क्या वह जाति की राजनीति थी या विभिन्न वर्गों के मुद्दों की राजनीति थी. इस के लिए उन द्वारा स्थापित पार्टियों के एजंडा का विश्लेषण ज़रूरी है.
आइए सब से पहले बाबा साहेब की स्वतंत्र मजदूर पार्टीको देखें. डॉ. आंबेडकर ने अपने ब्यान में पार्टी के बनाने के कारणों और उसके काम के बारे में स्पष्टीकरण देते हुए कहा था- “इस बात को ध्यान में रखते हुए कि आज पार्टियों को सम्प्रदाय के आधार पर संगठित करने का समय नहीं है, मैंने अपने मित्रों की इच्छाओं से सहमति रखते हुए पार्टी का नाम तथा इस के प्रोग्राम को विशाल बना दिया है ताकि अन्य वर्ग के लोगों के साथ राजनीतिक सहयोग संभव हो सके. पार्टी का मुख्य केंद्रबिंदु तो दलित जातियों के 15 सदस्य ही रहेंगे परन्तु अन्य वर्ग के लोग भी पार्टी में शामिल हो सकेंगे.”
पार्टी के मैनीफिस्टो में भूमिहीन, गरीब किसानों और पट्टेदारों और मजदूरों की ज़रूरतों और समस्याओं का निवारण, पुराने उद्योगों की पुनर्स्थापना और नए उद्योगों की स्थापना, छोटी जोतों की चकबंदी, तकनीकी शिक्षा का विस्तार, उद्योगों पर राज्य का नियंत्रण, भूमि के पट्टेदारों का ज़मीदारों द्वारा शोषण और बेदखली, औद्योगिक मजदूरों के संरक्षण के लिए कानून, सभी प्रकार की कट्टरपंथी और प्रतिक्रियावाद  को दण्डित करने, दान में मिले पैसे से शिक्षा प्रसार, गाँव के नजरिये को आधुनिक बनाने के लिए सफाई और मकानों का नियोजन और गाँव के लिए हाल, पुस्तकालय और सिनेमा घर आदि का प्रावधान करना था.
पार्टी ने मुख्यतया किसानों और गरीब मजदूरों के कल्याण पर बल दिया था. पार्टी की कोशिश लोगों को लोकतंत्र के तरीकों से शिक्षित करना, उन के सामने सही विचारधारा रखना और उन्हें कानून द्वारा राजनीतिक कार्रवाही के लिए संगठित करना आदि थी. इस से स्पष्ट है इस पार्टी की राजनीति जातिवादी न होकर वर्ग और मुद्दा आधारित थी और इस के केंद्र में मुख्यतया दलित थे. यह पार्टी बम्बई विधान सभा में सत्ताधारी कांग्रेस की विपक्षी पार्टी थी. इस पार्टी ने अपने कार्यकाल में बहुत जनोपयोगी कानून बनवाये थे. इस पार्टी के विरोध के कारण ही फैक्टरियों में हड़ताल पर रोक लगाने सम्बन्धी औद्योगिक विवाद बिल पास नहीं हो सका था.
अब बाबा साहेब द्वारा स्थापित 1942 में स्थापित आल इंडिया शैडयूल्ड कास्ट्स फेडरेशन के उद्देश्य और एजंडा को देखा जाये. डॉ. आंबेडकर ने इसे सत्ताधारी कांग्रेस और सोशलिस्ट पार्टियों के बीच संतुलन बनाने के लिए तीसरी पार्टी के रूप में स्थापित करने की बात कही थी.
पार्टी के मैनिफिस्टो में कुछ मुख्य मुद्दे थे: सभी भारतीय समानता के अधिकारी हैं, सभी भारतियों के लिए धार्मिक, आर्थिक और राजनैतिक समानता की पक्षधरता; सभी भारतियों को अभाव और भय से मुक्त रखना राज्य की जिम्मेवारी है,  स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व का संरक्षण; आदमी का आदमी द्वारा, वर्ग का वर्ग द्वारा तथा राष्ट्र का राष्ट्र द्वारा उत्पीड़न और शोषण से मुक्ति और सरकार की संसदीय व्यवस्था का संरक्षण, आर्थिक प्रोग्राम के अंतर्गत बीमा का राष्ट्रीयकरण और सभी सरकारी कर्मचारियों के लिए अनिवार्य बीमा योजना और नशेबंदी का निषेध था. यद्यपि यह पार्टी पूना पैक्ट के कारण शक्तिशाली कांग्रेस के सामने चुनाव में कोई विशेष सफलता प्राप्त नहीं कर सकी परन्तु पार्टी के एजंडे और जन आंदोलन जैसे भूमि आन्दोलन आदि के कारण अछूत एक राजनीतिक झंडे के तल्ले जमा होने लगे जिस से उन में आत्मविश्वास बढ़ने लगा. फेडरेशन के प्रोग्राम से स्पष्ट है कि यदपि इस पार्टी के केंद्र में दलित थे परन्तु पार्टी जाति की राजनीति की जगह मुद्दों पर राजनीति करती थी और का फलक व्यापक था.
जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है कि बाबा साहेब ने बदलती परिस्थितियों और लोगों की ज़रुरत को ध्यान में रख कर एक नयी राजनीतिक पार्टी “रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया” की स्थापना की घोषणा 14 अक्तूबर, 1956 को की थी और इस का संविधान भी उन्होंने ही बनाया था. इस पार्टी को बनाने के पीछे उन का मुख्य उद्देश्य एक ऐसी पार्टी बनाना था जो संविधान में किये गए वादों के अनुसार हो और उन्हें पूरा करना उस का उद्देश्य हो. वे इसे केवल अछूतों की पार्टी नहीं बनाना चाहते थे क्योंकि एक जाति या वर्ग के नाम पर बनायी गयी पार्टी सत्ता प्राप्त नहीं कर सकती. वह केवल दबाव डालने वाला ग्रुप ही बन सकती है. आरपीआई की स्थापना के पीछे मुख्य ध्येय थे: (1)समाज व्यवस्था से विषमतायें हटाई जाएँ ताकि कोई विशेषाधिकार प्राप्त तथा वंचित वर्ग न रहे, (2) दो पार्टी सिस्टम हो एक सत्ता में दूसरा विरोधी पक्ष, (3) कानून के सामने समानता और सब के लिए एक जैसा कानून हो, (4) समाज में नैतिक मूल्यों की स्थापना, (5) अल्पसंख्यक लोगों के साथ सामान व्यवहार, (6) मानवता की भावना जिस का भारतीय समाज में अभाव रहा है.
पार्टी के संविधान की प्रस्तावना में पार्टी का मुख्य लक्ष्य व उद्देश्य “ न्याय, स्वतंत्रता, समता व बंधुता” को प्राप्त करना था. पार्टी का कार्यक्रम बहुत व्यापक था. पार्टी की स्थापना के पीछे बाबा साहेब का उद्देश्य था कि अल्पसंख्यक लोग, गरीब मुस्लिम, गरीब ईसाई, गरीब तथा निचली जाति के सिक्ख तथा कमज़ोर वर्ग के अछूत, पिछड़ी जातियों के लोग, आदिम जातियों के लोग, शोषण का अंत, न्याय और प्रगति चाहने वाले सभी लोग एक झंडे के तल्ले संगठित हो सकें और पूंजीपतियों के मुकाबले में खड़े होकर संविधान तथा अपने अधिकारों की रक्षा कर सकें.
(दलित राजनीति और संगठन - भगवान दास)
आरपीआई की विधिवत स्थापना बाबा साहेब के परिनिर्वाण के बाद 1957 में हुयी और पार्टी ने नए एजंडे के साथ 1957 व 1962 का चुनाव लड़ा. पार्टी को महाराष्ट्र के इलावा देश के अन्य हिस्सों में भी अच्छी सफलता मिली. शुरू में पार्टी ने ज़मीन  के बंटवारे, नौकरियों में आरक्षण, न्यूनतम मजदूरी, दलितों से बौद्ध बने लोगों लिए आरक्षण आदि के लिए संघर्ष किया. पार्टी में मुसलमान, सिक्ख और जैन आदि धर्मों के लोग शामिल हुए. उनमें पंजाब के जनरल राजिंदर सिंह स्पैरो, दिल्ली में डॉ. अब्बास मलिक, उत्तर प्रदेश में राहत मोलाई, डॉ. छेदी लाल साथी, नासिर अहमद, बंगाल में श्री एस. एच. घोष आदि प्रसिद्ध व्यक्ति और कार्यकर्ता हुए. 1964 में 6 दिसंबर से फरवरी 1965 तक पार्टी ने स्वतंत्र भारत में ज़मीन के मुद्दे को लेकर पहला जेल भरो आन्दोलन चलाया जिस में तीन लाख से अधिक दलित जेल गए. सरकार को मजबूर हो कर भूमि आबंटन और कुछ अन्य मांगें माननी पड़ीं.
इस दौर में आरपीआई दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों की एक मज़बूत पार्टी के रूप में उभर कर सामने आई. परन्तु 1962 के बाद यह पार्टी टूटने लगी. इस का मुख्य कारण था कि इस पार्टी से उस समय की सब से मज़बूत राजनैतिक पार्टी कांग्रेस को महाराष्ट्र में खतरा पैदा हो रहा था. इस पार्टी की एक बड़ी कमजोरी थी कि इसकी सदस्यता केवल महारों तक ही सीमित थी. कांग्रेस के नेताओं ने इस पार्टी के नेताओं की कमजोरियों का फायदा उठा कर पार्टी में तोड़फोड़ शुरू कर दी. सब से पहले उन्होंने पार्टी के सब से शक्तिशाली नेता दादा साहेब गायकवाड़ को पटाया और उन्हें राज्य सभा का सदस्य बना दिया. इस पर पार्टी दो गुटों में बंट गयी: गायकवाड़ का एक गुट कांग्रेस के साथ और दूसरा बी.डी. खोब्रागडे गुट विरोध में. इस के बाद अलग नेताओं के नाम पर अलग गुट बनते गए और वर्तमान में यह कई गुटों में बंट कर बेअसर हो चुकी है. इन गुटों के नेता रिपब्लिकन नाम का इस्तेमाल तो करते हैं परन्तु उन का इस पार्टी के मूल एजंडे से कुछ भी लेना देना नहीं है. वे अपने अपने फायदे के लिए अलग पार्टियों से समझौते करते हैं और यदाकदा लाभ भी उठाते हैं.
आरपीआई के पतन के बाद उत्तर भारत में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के नाम से एक पार्टी उभरी जिस ने बाबा साहेब के मिशन को पूरा करने का वादा किया. शुरू में इस पार्टी को कोई ख़ास सफलता नहीं मिली. बाद में 1993 में उत्तर प्रदेश में पिछड़ी जातियों की समाजवादी पार्टी (सपा) के साथ मिल कर चुनाव लड़ने से इस पार्टी को अच्छी सीटें मिलीं  और एक सम्मिलित सरकार बनी. परन्तु कुछ व्यक्तिगत स्वार्थों के कारण जल्दी ही इसका पतन हो गया. इस पार्टी की नेता मायावती ने  सत्ता पाने के लालच में दलितों की घोर विरोधी पार्टी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) से समझौता करके मुख्य मंत्री की कुर्सी हथिया ली परन्तु बाबा साहेब के मिशन और सिद्धांतों को पूरी तरह से तिलांजलि दे दी. इस के बाद पार्टी ने दो बार फिर भाजपा से गठबंधन किया और सत्ता सुख भोगा और अब अपने पतन की ओर अग्रसर है. इस पार्टी ने अवसरवादी, ब्राह्मणवादी, माफिययों और पूंजीपति तत्वों को पार्टी में शामिल करके दलितों को मायूस किया और उन्हें राज्य से मिलने वाले कल्याणकारी लाभों से वंचित कर दिया. इस के नेतृत्व के व्यक्तिगत भ्रष्टाचार, तानाशाही और अदूरदर्शिता से बाबा साहेब के नाम पर दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों की बनी एकता छिन्न- भिन्न हो गयी है. आज दलितों का एक बड़ा हिस्सा इस पार्टी से टूट कर हिन्दुत्ववादी भाजपा के साथ चला गया है. दलितों की एक प्रमुख जाति चमार/जाटव को छोड़ कर दलितों की शेष उपजातियां अधिकतर भाजपा की तरफ चली गयी हैं. भाजपा इन जातियों का इस्तेमाल दलितों और मुसलामानों के बीच टकराव करवाने के लिए कर रही है. इस से हिंदुत्व मज़बूत हो रहा है और बहुसंख्यकवाद उग्र होता जा रहा है.
उपरोक्त विवेचन से एक बात बहुत स्पष्ट है कि डॉ. आंबेडकर जाति की राजनीति के कतई पक्षधर नहीं थे क्योंकि इस से जाति मजबूत होती है. इस से हिंदुत्व मजबूत होता है जो कि जाति व्यवस्था की उपज है. डॉ. आंबेडकर का लक्ष्य तो जाति का विनाश करके भारत में जातिविहीन और वर्गविहीन समाज की स्थापना करना था. डॉ. आंबेडकर ने जो भी राजनैतिक पार्टियाँ बनायीं वे जातिगत पार्टियाँ नहीं थीं क्योंकि उन के लक्ष्य और उद्देश्य व्यापक थे. यह बात सही है कि उनके केंद्र में दलित थे परन्तु उन के कार्यक्रम व्यापक और जाति निरपेक्ष थे. वे सभी कमज़ोर वर्गों के उत्थान के लिए थे. इसी लिए जब तक उन द्वारा स्थापित की गयी पार्टी आरपीआई उन के सिद्धांतों और एजंडा पर चलती रही तब तक वह दलितों, मजदूरों और अल्पसंख्यकों को एकजुट करने में सफल रही. जब तक उन में आन्तरिक लोकतंत्र रहा और वे जन मुद्दों को लेकर संघर्ष करती रही तब तक वह फलती फूलती रही. जैसे ही वह व्यक्तिवादी और जातिवादी राजनीति के चंगुल में पड़ी उसका पतन हो गया.
अतः यदि वर्तमान में विघटित दलित राजनीति को पुनर्जीवित करना है तो दलितों को जातिवादी राजनीति से निकल कर व्यापक मुद्दों की राजनीति को अपनाना होगा. जाति के नाम पर राजनीति करके व्यक्तिगत स्वार्थसिद्धि करने वाले नेताओं से मुक्त होना होगा. उन्हें यह जानना चाहिए कि जाति की राजनीति जाति के नायकों की व्यक्ति पूजा को मान्यता देती है और तानाशाही को बढ़ावा देती है. जाति की राजनीति में नेता प्रमुख हो जाते हैं और मुद्दे गौण. अब तक के अनुभव से यह सिद्ध हो चुका है कि जाति की राजनीति से जाति टकराव और जाति स्पर्धा बढ़ती है जो कि जातियों की एकता में बाधक है. इसी के परिणामस्वरूप दलितों की कई छोटी उपजातियां बड़ी उपजातियों से प्रतिक्रिया स्वरूप अपनी दुश्मन हिन्दुत्ववादी पार्टियों से जा मिली हैं जो कि दलित एकता के लिए बहुत बड़ा खतरा है. अतः इस खतरे के सम्मुख यह आवश्यक है कि दलित वर्ग अपनी राजनैतिक पार्टियों और राजनेताओं का पुनर्मूल्यांकन करे और जाति की विघटनकारी राजनीति को नकार कर जनवादी, प्रगतिशील और मुद्दा आधारित राजनीति का अनुसरण करे जैसा कि डॉ. आंबेडकर की अपेक्षा थी.

दरअसल अब देश को जातिवादी पार्टियों की ज़रूरत नहीं बल्कि सब के सहयोग से जाति-व्यवस्था विरोधी एक मोर्चे की ज़रुरत हैअन्यथा जातियां मज़बूत होती रहेंगी जिस से धर्म की राजनीति को पोषण मिलता रहेगा जो वर्तमान में लोकतंत्र के लिए सब से बड़ा खतरा है.     Abheya Das Deoband 

शनिवार, 11 अगस्त 2018

मायावती की जीवनी

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मायावती की जीवनी लिखने वाले अजॉय बोस लिखतें है की 'कांशीराम, मायावती के साथ बहुत अच्छा भावनात्मक जुड़ाव रखते थे. कांशीराम का गुस्सैल स्वभाव, खरी-खरी भाषा व जरूरत पड़ने पर हाथ के इस्तेमाल पर मायावती की तर्कपूर्ण खरी-खरी बातें भारी पड़ती थी. समान आक्रामक स्वभाव वाले दलित चेतना के लिए समर्पित इन दोनों लोगो के काम का अंदाज़ जुदा होते हुए भी एक दुसरे का पूरक था, जहां कांशीराम लोगो से घुलना मिलना, राजनैतिक संघर्ष और गपशप में यकीन रखते थे वही मायावती अंतर्मुखी रहते हुए राजनैतिक बहसों को समय की बर्बादी मानती थीं. मायावती का ये अंदाज़ अब भी बरकरार है. वे आज भी चुपचाप अपना काम करती हैं. राजनैतिक अटकलबाजियों में ना तो वो खुद शामिल होती हैं ना ही पार्टी के कार्यकर्ताओं को शामिल होने देती हैं. अस्सी के दशक में जब वे आम अध्यापिका थीं तब भी वे अपनी शख्सियत के मुताबिक़ पूछा करती थी "अगर हम हरिजन की औलाद है तो क्या गांधी शैतान की औलाद थे." अपने इसी तेज तर्रारी व खरी तेजाबी जुबान से ,जब उन्होंने वर्णवादी व्यवस्था को मनुवादी कह कह कर हिंदी क्षेत्रों में लताड़ना शुरू किया तो वर्षो से दबे हुए दलित समाज ने उन्हें अपनी आवाज़ और अपने लिए युद्धरत एक सिपाही को मायावती के रूप में पाया. कांग्रेस में वोटबैंक की मानिंद सिमटे रहने वाले दलित अधिकारी नेता अब आज़ाद महसूस करने लगे और अस्सी के दशक का 'हरिजन' कब राजनैतिक व्यक्तित्व को प्राप्त कर 'दलित' बन गया ये पता ही नहीं चला. मायावती को समझने के लिए उनकी आत्मकथा
'मेरा संघर्षमय जीवन एवं बहुजन समाज मूवमेंट का सफरनामा'
 के पन्ने पलटने होंगे. हर चेतना संपन्न दलित की तरह मायावती में भी दलित आंदोलन की पहली समझ बाबा साहब डा. अंबेडकर की जीवनी और उनकी किताबें पढ़कर आई. इन किताबों से मायावती का पहला परिचय उनके पिता ने कराया. मायावती अपनी आत्मकथा में लिखती हैं, 'तब मैं आठवीं कक्षा में पढ़ती थी. एक दिन मैने पिताजी से पूछा कि अगर मैं भी डा.अंबेडकर जैसे काम करूं तो क्या वे मेरी भी पुण्यतिथि बाबा साहब की तरह ही मनाएंगे?' मायावती के विरोधी भले ही उनको लेकर मनगढ़ंत कहानियां गढ़ते फिरें और उन पर तानाशाही का आरोप लगाते रहें, मायावती का राजनीतिक जीवन इतना आसान नहीं रहा है. मायावती पहले बामसेफ और फिर डीएस फोर में सक्रिय हुईं. दोनों संगठनों की स्थापना क्रमश: 1978 और 1981 में हुई थी. उस समय इन संगठनों से मायावती का जुड़ाव यह साबित करता है कि सत्ता उनका साध्य नहीं थी. वह खुद तय किए उद्देश्य के लिए लड़ रही थीं. यह वह समय था जब दलित आंदोलन का कोई भविष्य नहीं दिखता था, कोई मानने को तैयार नहीं था कि बहुजन आंदोलन कभी सफल भी होगा. मायावती जी आज जिस मुकाम पर हैं, वहां तक पहुंचने के लिए उन्होंने कड़ा संघर्ष किया है. निजी जिंदगी में परिवार के स्तर पर भी उन्होंने बहुत तकलीफें सही. 1984 में बहुजन समाज पार्टी बनने पर ही मायावती सक्रिय राजनीति में उतरीं, लेकिन पिता उनके राजनीति में जाने के विरोधी थे. पिता ने कहा कि अगर कांशीराम का साथ नहीं छोड़ा तो उन्हें परिवार से अलग कर दिया जाएगा. अपनी आत्मकथा में मायावती लिखती हैं, 'पिता जानते थे लड़की घर छोड़कर नहीं जा सकती. उन्होंने मुझ पर दबाव बनाया, लेकिन मैंने उनकी नहीं सुनी.' इसके बाद मायावती ने घर छोड़ दिया. उनका साथ दिया बड़े भाई ने. पास में था तो बस सात साल की नौकरी से बचा कुछ पैसा. वह कहती हैं कि 'मैं भाई के साथ अलग कमरा लेकर रहती थी. कमरा कांशीराम जी ने दिलवाया था. जल्दी ही लोगों ने दुष्प्रचार शुरू कर दिया.' खुद कांशीराम ने भी लिखा है कि राजनीति में प्रवेश करते ही मायावती की बेहिसाब मुश्किलें शुरू हो गईं.' अपनी पहली राजनीतिक जीत के लिए उन्हें कई साल का इंतजार करना पड़ा. 1984 में बसपा के गठन के बाद से ही मायावती ने कैराना से चुनावी सफ़र शुरू किया. इस मुकाबले में जीत तो कांग्रेस प्रत्याशी की हुई, पर मायावती ने भी अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज कराई. इस चुनाव में मायावती ने 44,445 वोटों के साथ तीसरा स्थान प्राप्त किया. फिर आया 1985 बिजनौर का उपचुनाव. इस चुनाव में वह 61,504 वोटों के साथ तीसरे स्थान पर रहीं. मायावती को चाहने वालों की तादाद बढ़ रही थी और साथ ही वोटों की संख्या भी. 1987 में हरिद्वार सीट से 1,25,399 वोटों के साथ वह दूसरे स्थान पर रही. 1988 के महत्वपूर्ण इलाहाबाद की लोकसभा सीट के उपचुनाव में वी पी सिंह व कांग्रेस के अनिल शास्त्री के एतिहासिक मुकाबले में तीसरी बड़ी दावेदारी कांशीराम के नेतृत्व में इसी बहुजन समाज पार्टी ने पेश किया. इतने प्रयासों के बाद सन् 1989 में बिजनौर से 1,83,189 वोटों के साथ वे पहली बार संसद के लिए चुन ली गई. 1984 में 'बीएसपी की क्या पहचान, नीला झंडा-हाथी निशान'

 व बाबा तेरा मिशन अधूरा मायावती करेंगी पूरा,
 के नारों के साथ बसपा ने 1993 में सपा (पिछड़े मुस्लिम) व बसपा (अति पीछड़े व दलित) गठबंधन कर, 'मिले मुलायम-कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम' का नारा दिया. लगा भाजपा के पूरे राम मंदिर आंदोलन को धुल चटा सवर्णों के धर्म व राजनैतिक आंदोलन की रीढ़ ही तोड़ दी गई है. कांशीराम की तरह वे उत्तर प्रदेश से बाहर की नहीं थी. वे यूपी की बेटी थी, वे दलित की बेटी थी. मायावती की इसी ज़मीनी पकड़ और आक्रामकता के चलते 1989 में बसपा महज दो लोकसभा सीटो पर 9.93 फीसदी मत से बढ़कर 1999 आते आते 14 सीट और 22.8 फीसदी मतों पर पहुंच गई. 1995 में भाजपा के साथ हाथ मिला दलित की ये बेटी पहली दलित महिला मुख्यमंत्री बन गई. इस देश के अलावा देश के बाहर के लोगों के लिए भी एक अचंभे की बात थी. यह वह वक्त था, जब मायावती विश्व के फलक पर अचानक एक कद्दावर नेता के रूप में उभरी थी. उनकी इन्हीं उपलब्धियों की बदौलत प्रतिष्ठित 'न्यूज वीक' पत्रिका उन्हें दुनिया की आठ सर्वाधिक ताकतवर महिलाओं में शुमार कर चुकी हैं. मुख्यमंत्री का पद संभालने के बाद उन्होंने बहुजन नायकों और बहुजन हितों पर खासा ध्यान दिया. मायावती ने अम्बेडकर ग्राम योजना लाकर अनुसूचित जाति बहुल गांव में सरकारी निवेश को बढ़ा दिया. थानों में दलित अधिकारियों की नियुक्ति कर दलित उत्पीडन पर रोक लगा दी व दलित महापुरुषों के नाम पर नए जिले घोषित कर दलितों को मोह लिया. तब से ही दलितों के साथ ही पछड़े वर्ग में भी मायावती का खासा प्रभाव रहा. सी एस डी एस की रिपोर्ट को माने तो सन 1996 में बसपा को 27% कुर्मी, 24.7% कोईरी वोट मिले. समाजवादी पार्टी तो मायावती और बसपा के बढ़ते कदम से इतनी बौखला गई कि उसके लोगों ने मायावती पर हमला तक कर दिया. मुलायम की पार्टी के कुछ लोगों द्वारा गेस्ट हॉउस में मायावती के ऊपर किये गए जानलेवा हमले में सवर्ण नेताओं खासकर ब्रह्मदत्त द्विवेदी द्वारा बचाई गई मायावती ने सन् 2005 में बसपा में ही सवर्ण नेतृत्व उभारना शुरू कर दिया. इसको वकील से यूपी के महाधिवक्ता बनाये गए सतीश चन्द्र मिश्र ने मूर्त रूप दे डाला. मायावती ने सवर्ण और ब्राह्मण नेताओं को ज्यादा महत्त्व देना ,कांशीराम द्वारा बनाया गया 15 बनाम 85 फीसदी का बहुजन सामाजिक समीकरण को 25% दलित, 9% ब्राह्मण+20% अति पिछड़ों का समीकरण कर दिया. कांग्रेस के जाते ही जो ब्राह्मण नेतृत्व विहीन हो गए थे वे सतीशचंद्र के नेतृत्व में 2007 में बड़ी संख्या में बसपा से जुड़े, यहां तक कि 42 ब्राह्मण जीतकर बसपा की पहली बार बनी पूर्ण बहुमत सरकार का हिस्सा बने. यह सब मायावती की बेहतरीन राजनीतिक सूझ-बूझ का ही नतीजा था. उनके विरोधी भले ही कुछ भी कहें, लेकिन ताज एक्सप्रेस वे और बुद्ध इंटरनेशनल सर्किल मायावती के मुख्यमंत्रित्वकाल की ऐसी उपलब्धि है, जिसके बारे में उनके राजनीतिक प्रतिद्वंदी सोच भी नहीं सकते थे. वरिष्ठ लेखिका अरुणधति राय भी विरोधियों के इसी कुप्रचार का शिकार थीं. लेकिन नोएडा में बुद्ध इंटरनेशनल सर्किल पर देखने के बाद अपने एक संस्मरण में उन्होंने मायावती की तारीफ के पुल बांधे थे. प्रशासक के रूप में 'बहन जी' का तेवर हमेशा उग्र रहा है और उन्होंने समझौता नहीं किया. उत्तर प्रदेश के एक बड़े किसान नेता महेन्द्रसिंह टिकैत द्वारा एक जन सभा में जिसमें, अजीत सिह भी मौजूद थे, मायावती को गालियां दी गई. बहन जी ने टिकैत की गिरफ्तारी का आदेश दिया. टिकैत बिजनौर से मजबूत आधार वाले अपने गांव सिसौली (मुजफ्फर नगर) लौट आया. गांव की घेराबन्दी कर दी गई. पानी बिजली काट दी गई. अंत में बड़बोला टिकैत अपनी औकात में आ गया. उसने गिड़गिडा़ते हुए मुख्यमंत्री मायावती से माफी मांगी और उसको गिरफ्तार कर लिया गया. वहीं मुलायम राज को पटखनी देकर तब सत्ता में पहुंची मायावती ने यूपी के बड़े-बड़े गुंडों को सलाखों के पीछे पहुंचा दिया. कई अंडरग्राउंड हो गए . सख्त प्रशासन के लिए विपक्षी भी उनका लोहा मानते हैं. चाहे किसी जाति या धर्म का व्यक्ति हो, प्रदेश की आम जनता ने बसपा शासन में हमेशा सुरक्षित महसूस किया. खासकर महिलाओं ने एक महिला मुख्यमंत्री के प्रसाशन को काफी पसंद किया. 'चढ़ गुंडो की छाती पर मुहर लगेगी हाथी पर' जैसे नारे एक वक्त उत्तर प्रदेश की फिजाओं में खूब गूंजे थे. मायावती ने हमेशा से अपनी कड़क छवि के अनुरूप ही काम किया. बहुजन नायकों के सम्मान को लेकर भी मायावती हमेशा सचेत रहीं. यह तब देखने को मिला जब 2007 में उन्होंने लखनऊ के अंबेडकर स्मारक के रख रखाव में कोताही बरतने के कारण कुछ अधिकारियों को निलंबित कर दिया. मायावती का पूरा ध्यान दलितों के हित साधने में रहा. उनके द्वारा बैकलाग की भर्तियों पर बार-बार पूछताछ जारी रही. दलित कोटे को पूरा करना और महत्वपूर्ण पदों पर उन्हीं के लोगों की तैनाती इस बात को दर्शाती भी रही. अपने राजनीतिक गुरु, सचेतक और बसपा के संस्थापक मान्यवर कांशीराम जी के गुजरने के बाद मायावती को झटका लगा. लेकिन तब तक वे परिपक्व हो चुकी थीं. एक वक्त ऐसा भी आया जब कई बड़े नामों ने बसपा का साथ छोड़ दिया. इनमें बसपा को कई साल देने वाले सलेमपुर के पूर्व सांसद बब्बन राजभर हो, बलिया से ही कांशीराम के साथी पूर्व सांसद बलिहारी बाबू हो, इलाहबाद से इंडियन जस्टिस पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष कालीचरण सोनकर हो या फिर आजमगढ़ के सगड़ी के नेता मल्लिक मसूद तमाम लोग पार्टी से अलग हो गए. इसमें से कई आज कांग्रेस की शोभा बढ़ा रहे है. लेकिन कुछ ऐसे लोग भी रहें तो 'बहन जी' के पीछे साए की तरह खड़े रहें. इनमें कांशीराम के सेक्रेट्री अम्बेथ राजन व पार्टी के बिहार प्रभारी गांधी आज़ाद जैसे प्रतिबद्ध दलित कार्यकर्ता रहे हैं. अम्बेथ राजन का संगठन कांशीराम व अन्य दलितों को दिल्ली में मूलभूत सुविधाएं देता था. आज भी वे उसी प्रकार की सेवाएं बसपा का खजांची बन कर दे रहे हैं. मायावती के जीवन संघर्ष पर जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र विभाग के प्रो. विवेक कुमार ने पिछले दिनों अपने एक लेख में लिखा था, 'यह विडंबना है कि लोग आज मायावती के गहने देखते हैं, उनका लंबा संघर्ष और एक-एक कार्यकर्ता तक जाने की मेहनत नहीं देखते. वे यह जानना ही नहीं चाहते कि संगठन खड़ा करने के लिए मायावती कितना पैदल चलीं, कितने दिन-रात उन्होंने दलित बस्तियों में काटे. मीडिया इस तथ्य से आंखें मूंदे है. जाति और मजहब की बेड़ियां तोड़ते हुए मायावती ने अपनी पकड़ समाज के हर वर्ग में बनाई है. वह उत्तर प्रदेश की पहली ऐसी नेता हैं, जिन्होंने नौकरशाहों को बताया कि वे मालिक नहीं, जनसेवक हैं. अब सर्वजन का नारा देकर उन्होंने बहुजन के मन में अपना पहला दलित प्रधानमंत्री देखने की इच्छा बढ़ा दी है. दलित आंदोलन और समाज अब मायावती में अपना चेहरा देख रहा है. भारतीय लोकतंत्र को समाज की सबसे पिछली कतार से निकली एक बहुजन महिला की उपलब्धियों पर गर्व होना चाहिए l मायावती एक जांबाज लीडर हे अपने समाज के लिए अगर कोई कुछ कर सकता हे तोसिर्फ आयरन लेडी बहन मायावती हे /अभय दास  deoband -


बुधवार, 13 जून 2018

।गुरु रविदासजी चरणछोह गंगा खुरालगढ़ इतिहास

।गुरु रविदासजी चरणछोह गंगा खुरालगढ़ इतिहास।
               ॥ भाग पच्चीस ॥
एक बार गुरु रविदास जी महाराज हरियाणा के शहर कुरुक्षेत्र में एक संत सम्मेलन में आए हुए थे जिसमें सतगुरु कबीर साहिब नामदेव जी मीराबाई रैदास जी  जगजीवन दास ने भी शिरकत की थी ॥ सारी रात संतों ने धार्मिक प्रवचन के साथ संत सम्मेलन किया  ॥ सुबह मीराबाई अपने पूज्य गुरु रविदास जी से कहने लगी , महाराज मेरा मासड़ राजा वैन यहां से नजदीक खुरालगढ़ का राजा हैँ ॥ उसके राज्य में जो भी साधु संत प्रवेश करता हैँ , उसे वह चक्की पीसने की सजा देता हैँ , मुझे ये सुन कर अत्यंत दुःख होता हैँ ॥ साधु संत भी मानसिक रूप से प्रताड़ित होते हैँ ॥ इसलिये मेरी आपसे करबद्ध प्रार्थना हैँ कि , आप खुरालगढ़ चल कर उन्हें सन्मार्ग पर लाने की कृपा करें ॥ मैं भी गुरु जी आपकी अत्यंत शुक्रगुजार हूंगी ॥ गुरु रविदास जी तो स्वयं ही उसी पापी के पापों से साधु संतों को मुक्त करने कुरुक्षेत्र आए थे ॥ गुरु जी ने मीराबाई को कहा , ठीक हैँ हम आपके साथ राजा वैन के राज्य में अवश्य चलेंगे ॥
गुरु रविदास महाराज अपने प्रिय साथियों के साथ कुरुक्षेत्र से चंडीगढ़ होते हुए भी शाम को रोपड़ पहुंचे ॥ गुरु रविदास जी और अन्य सभी संत महापुरुषों का स्थानीय संतों और संगत ने हार्दिक अभिनंदन किया ॥ थके हुए संतों ने रात को कुछ समय धार्मिक चर्चा की और सो गये ॥ सुबह पुन अपने लक्ष्य की ओर सभी संतवृन्द चल पड़े ॥ गुरु जी अपने संत वृन्द के साथ नंगल होते हुए संतोषगढ़ रुके जहाँ उन्हें पूर्णरूपेण रात हो गईं ॥ इस गांव में सभी लोग चमार जाति के रहते आए हैं ॥ गुरु रविदास जी भी हमेशा मार्शल चमार जाति के घर ही रात बिताते थे ! गांववासियों ने अपने भगवान गुरु रविदास और अन्य पूज्य गुरुओं के गांव में पधारने पर अपने आपको धन्य समझ कर सभी गुरुओं का जोरदार स्वागत किया ॥ सभी के निर्मल स्वच्छ जल से पांव धोये ॥ सभी को खाना खिलाया और आराम करने केलिये शयन व्यवस्था की ॥ सभी गुरुओं ने रात को वहां शब्द कीर्तन किया और स्थानीय जनता की सेवा का मेवा देकर उपकृत किया ॥
दूसरे दिन सभी संत खुरागढ़ केलिये रवाना हो गये ॥ वे गांव टाहलीबाल , बाथड़ी होते हुए खुरालगढ़ पहुंच गये ॥ सभी गुरुओं ने राजा वैन के राज्य में डेरा डाल दिया ॥ दोहपर का खाना वहीँ खाया ॥ उधर राजा के गुप्तचरों ने राजा को साधु संतों के राज्य में प्रवेश की सूचना देदी ॥ राजा वैन गुप्तचरों की सूचना सुनते ही आग बबूला हो गया ॥ उसनेअपने अहदियों को आदेश दिया , तुरंत साधुओं को दरबार में बुलाओ ॥ उनकी यहां प्रवेश करने की हिम्मत कैसे हुई ? अहदी तुरंत उस स्थान पर चले गये जहाँ सभी साधु संत ठहरे हुए थे ॥  अहदियों ने गुरुओं को राजा वैन का फरमान सुना कर उनके दरबार में हाजर होने केलिये कहा ॥ गुरु रविदास जी के साथ सभी साधु राजा के दरबार में हाजर हो गऐ ॥ किसी भी संत ने राजा वैन को सलाम कलाम नहीं की जिससे क्रोद्ध की भठ्ठी में जलते हुए राजा ने साधुओं को कड़े स्वर में पूछा , क्या आपको ज्ञान हैँ कि मेरे राज में जब साधु संत प्रवेश करते हैं तो उन्हें क्या करना पड़ता हैँ ? गुरु रविदास जी महाराज ने राजा वैन को उतर देते हुए कहा , नहीं राजन हम नहीं जानते ॥ राजा ने गुस्से से कहा , यहां साधुओं को चक्की में अन्न पीस कर आटा तैयार करना पड़ता हैँ ॥ गुरु रविदास जी ने राजा को हुक्म दिया आप अपने सारे राज्य का सारा आनाज तुरंत इकठ्ठा करके एक जगह ढेर लगा दो और वहीँ एक चक्की भी लगा दो ॥ जब हमारी चक्की चलेगी तो हमारे संत निरंतर रात दिन  चक्की चलाएंगे ॥ काम करते समय हमें रुकावट नहीं होनी चाहिये ॥
राजा वैन ने समीप के उजाड़ बियाबान जंगल के पास नाले में चक्की लगा दी ॥ राजा ने भी राज्य का सारा अन्न वहीँ इकठ्ठा करबा दिया ॥ जब पूज्य गुरु रविदास जी वहां पहुंचे तो सभी संत गर्मी के कारण पसीने से भीग गये ॥ कबीर साहिब , गुरु रविदास जी से कहने लगे गुरु महाराज हमें प्यास बहुत सता रही हैँ ॥ प्यास इतनी लगी हुई हैँ कि जान निकली जा रही हैँ ॥ गुरु रविदास जी ने कबीर साहिब की पुकार तुरंत सुनकर अपने दाहिने पांव के अंगूठे से सूखे पठार से एक पत्थर उखाड़ा जिससे वहाँ गंगा हजार हो गईं और पानी की बौछारें निकलनी शुरू हो गईं ॥ जब राजा वैन को इस हैरतंगेज घटना का पता चला तो वह दंग रह गया ॥ उधर जब चक्की चली तो वह खुद ही चलती रही ॥ जब राजा वैन चलती चक्की देखने केलिये आता तो क्या देखता कि:--- चक्की को साधु हाथ से चला रहे हैँ जबकि चक्की स्वत ही चलती रहती थी ॥ सारा अन्न कुछ ही दिनों में पीस दिया गया ॥ जनता को इतनी भूख बढ़ गईं कि राज्य का अन्न भी खत्म होता गया ॥ जब राजा वैन को इस घटना का पता चला कि राज्य का सारा अन्न खत्म हो रहा हैँ जिससे आहत होकर वह नंगे पांव गुरु रविदास जी के पास अनुनय विनय करने लगा ॥ महाराज मैं हमेशा गलती करता आया हूँ , मुझे बख्श लो ॥ मैं तौबा करता हूँ ॥ अब मैं किसी को भी दुखी नहीं करूंगा ! मैं सभी साधुओं का आदर करूंगा ॥ मुझे माफ कर दो ॥ गुरु रविदास जी तो अपनी क्रान्तिकारी योजना के अनुसार पापियों के पाप कर्म छुड़ा रहे थे ॥ गुरु रविदास जी ने राजा वैन को माफ कर दिया मगर वह भी संन्यास लेकर गुरु जी का मुरीद बन गया ॥गुरु जी ने राजा का दिल परिवर्तित करके पंजाब के लिये प्रस्थान कर दिया ॥ राजा वैन का आज भी  संतोषगढ़ कस्बे से वाया नंगड़ा ऊना जाने वाली सड़क के किनारे एक छोटा सा मंदिर हैँ ॥ ये मंदिर इसीलिये विकास नहीं कर सका कि इस का संबंध गुरु रविदास जी से हैँ अन्यथा गुरु रविदास जी किसी ब्राह्मण के मुरीद होते  तो यहां आलीशन मंदिर होता ॥