भारतवर्ष के, मूलनिवासी शासकों की फ़ितरत रही है कि, वे हमेशा ही मिल कर नहीं रहे हैं, ये फ़ितरत आज भी जारी है। राजा बलि भी इसी कड़ी का एक जिद्दी राजा था, जिस ने दानवीर बनने के लिए, अपने दूरद्रष्टा गुरु शुक्राचार्य के आदेश को नहीं माना था और विष्णु के, छल प्रपंच से खुद तो मारा ही था, साथ में अपने तीव्र बुद्धि, गुरु शुक्राचार्य जी को भी ले डूबा और भारत के मूलनिवासी लोगों को भी गुलामी की जंजीरों के बंधनों में बॉन्ध दिया था। तत्कालीन मूलनिवासी शासक मक्का मदीना से चल रही केंद्रीय सरकार के अधीन शासन करते थे, यदि ये राजा अपने राजधर्म को समझते हुए, राजधर्म के अनुसार शासन करते तो राजा बलि और उन के गुरु शुक्राचार्य की दुर्गति नहीं हो सकती थी। वे विष्णु और लक्ष्मी को प्रश्रय देने की गलती ना करते तो शुक्राचार्य भी काणा ना होता और ना ही उन्हें केरल नगरी छोड़ कर, सत नगरी मक्का मदीना जाना पड़ता।
शुक्राचार्य और अरब का संबंध:---जब राजा बलि ने, अपनी दानवीरता का अहम नही छोड़ा, तब गुरु शुक्राचार्य केरल को त्याग कर, मक्का मदीना चले गए थे। वे वहां अपने पौत्र और्ब उर्फ अर्व्ब उर्फ हर्ब के पास जा कर रहने लगे थे। शुक्राचार्य वहां पर दस वर्षों तक रहे थे। साइक्स नामक विदेशी लेखक अपनी पुस्तक "हिस्ट्री आफ पर्शिया" में, लिखते हैं कि, और्ब, अर्व्ब, हर्ब शब्द के अपभ्रंश रूप बनते बनते ये शब्द अरब बन गया है। शुक्राचार्य का संबंध पौत्र हर्ब के नाम से इतिहास बन चुका है, जो तर्कसंगत, तर्कसम्मत लगता है, क्योंकि मक्का मदीना से ही सत्पुरुष सम्राट कैलाश जी और उन के पुत्र सिद्धचानो जी महाराज और मातेश्वरी साम्राज्ञी लोना जी ही शासन करते थे। उन्हीं के अधीन कन्याकुमारी तक राज चलता था, मगर उन के बाद केंद्रीय सत्ता कमजोर होती गई, सम्राट शिव भी ईश्वर के अंध भगत अधिक बन गए थे, जिस के कारण, यूरेशियन आक्रांताओं ने, उन की दरियादिली और शराफत का नाजायज लाभ उठाया। उन की साम्राज्ञी गौरजां उर्फ गौरां का कत्ल करबा कर, अपनी पुत्री पार्वती से, शिव को धीमा विष और भांग पिला पिला कर शहीद करवा दिया गया था। राजा बलि ने भी अपनी दानवीरता की जिद्द में अड़े रह कर, दक्षिण भारत का शासन खो दिया था।
वर्तमान मुस्लिम देश अरब:---राजा बलि की मूर्खता के कारण ही शुक्राचार्य जी को, केरल छोड़ना पड़ा था, क्योंकि मूर्ख लोग अपनी जिद्द के कारण अपने गुरु को भी डुबो देते है, इसी लिये शुक्राचार्य समझ गए थे कि, ये आदमी खुद भी डूबेगा और मुझे भी डुबो देगा, हुआ भी ऐसा ही, मगर वे अपनी जान बचा कर मक्का मदीना चले गए। वहीं अपने पौत्र और्ब के पास दस वर्ष तक रहते रहे, इसी पौत्र के नाम के कई अपभ्रंश शब्द बनते बनते अरब शब्द बन गया था, जिस से विशाल भारत का खण्ड अरब देश कहलाता आ रहा है। जिस के बाद अरब भूभाग के भी कई टुकड़े हो गए, जिन्हें आज मुस्लिम अरब देश कहा जा रहा है।
जिस प्रकार, हठी, अहंकारी राजा बलि ने, अपने गुरु शुक्राचार्य का कहा नहीं माना, ठीक वैसा ही इतिहास भारत मे बार बार दोहराया जा रहा है। वर्तमान में, साहिब कांशीराम जी भी, शुक्राचार्य का ही प्रतिरूप हुए हैं, उन्होंने भी, सारे भारत के, मूलनिवासी राजनेताओं कल्याण सिंह, लालू यादव, मुलायम सिंह यादव, पासवान आदि को एक झंडे तले इकठ्ठा करने का प्रयास किया मगर, ये राजा बलि के वंशज नहीं सुधरे और नित नई नई राजनीतिक पार्टियां बना कर, ब्रह्मा, विष्णु के वंशजों की ही सरकारें बना रहे हैं। ये अहंकारी राजनेता मूलनिवासी बोटों को बांट कर, खुद तो गुलाम बन ही रहे मगर साथ में, असहाय मूलभारतीयों को भी मनुवादियों के गुलाम बना रहे हैं। जा जाने ये दानवीर बलि, महाराजा नंद के वंशज राजनेता कब समझेंगे।
अमेरिका में भारतीय मूल के लोगों में ब्राह्मणों की संख्या लगभग ३०% बताई जाती है। जबकि भारत में ब्राह्मणों की संख्या पाँच प्रतिशत से कम होने का अनुमान है । इससे प्रतीत होता है कि भारत से जाने वाले लोगों में ब्राह्मणो का अनुपात काफी है। इसमें पलायन व विकसित देशो में जाकर रहना दोनो कारण शामिल हैं .
ब्राह्मणो के भारत से पलायन का कारण है भारत में ब्राह्मण विरुद्ध राजनैतिक माहौल और कुछ स्थितियों में ब्राह्मणो पर सीधा हमला। काफी कश्मीरी पंडितों ने विदेशों में शरण ली थी , जो बेचारे उतने सक्षम नहीं थे वो आज भी अपने देश में ही शरणार्थीयों की तरह से रह रहे हैं। उनकी स्थिति बँटवारे के बाद पाकिस्तान में फँसे हिन्दुओ जैसी है , गरीब के लिए तो पलायन भी कठिन होता है।
कश्मीर के अतिरिक्त भी भारत में अलग अलग हिस्सों में ब्राह्मणों पर सीधे हमले हुए हैं। और कुछ नहीं तो ब्राह्मण विरोधी राजनीति एक चलन बन गया था। तमिलनाडु से बहुत ब्राह्मणो ने पलायन किया है। आंध्र प्रदेश से ब्राह्मणों के पलायन की घटनाएँ सुनने में आई हैं।
भारत के हर प्रदेश से पलायन नहीं हुआ है . पलायन के प्रदेश वही हैं जहाँ संख्याबल कम है।
तरह तरह से ब्राह्मण विरोध खुलकर व्यक्त किया जाता है रहा है , किसी अन्य जाति का ऐसा विरोध जातिवाद की श्रेणी में आता है। पर जाति के आधार पर ही ब्राह्मण विरोध तो जातिवाद का ही विरोध है।
ये देखिए तमिलनाडु में छ्पा एक कार्टून . एक सूअर को जनेऊ पहनाकर बनाया गया ये कार्टून ब्राह्मणों पर भड़ास निकालने का प्रयास है ।
ब्राह्मण: हमारे लिए तो वाराह अवतार पूजनीय है इसमें क्या अपमान? 🙏🙏🙏 इसको बनाने वाले के मन मे गुबार को देखकर तो लगता कि बेचारा बहुत दुखी है .
इस कार्टून को देखें। ब्राह्मण की चोटी एक सर्प की भाँति गरीब को डस रही है। और हाथ में मनु और वेद लिये हुए है.
यहाँ पर प्रश्न है कि क्या इन पुस्तकों को केवल ब्राह्मण मानते हैं ?
यदि इन पुस्तकों को केवल ब्राह्मण मानते हैं तो सिद्ध हुआ कि वे समाज को प्रभावित ही नहीं कर पा रहे। और इस स्थिति में वे किसी के विरुद्ध इनका प्रयोग कैसे करेंगे।
यदि इन पुस्तकों को समाज के अन्य वर्ग भी मानते हैं तो फिर इनको ब्राह्मणो से जोड़ने का क्या प्रयोजन ?
आँकड़े ये कहते है कि दलितों को छोड़कर अन्य सभी जातियों में ब्राह्मण सबसे अधिक गरीब हैं।
वास्तविकता ये है कि कुछ चुनिन्दा ब्राह्मणो को छोड़कर भारत के सभी ब्राह्मण सुदामा की तरह दरिद्र हैं। जो स्वयं ही दरिद्र है वो किसी को किस प्रकार की प्रताड़ना दे सकता है ? किसी प्रकार का झगड़ा उसके बस की बात नहीं . इक्का दुक्का कहीं मंदिर में जाने रोकने जो घटनाएँ होती थी वो पुरानी हो गई हैं।
लाक्षागृह काण्ड के बाद जब पाण्डव एक गाँव में जाकर रुके तो एक ब्राह्मण का आश्रय मिला। उस गाँव के लोग बकासुर नाम के राक्षस के यहाँ बारी बारी से जाते थे और जो भी जाता था बकासुर उन्हें खा जाता था। ये ब्राह्मण इतना शक्तिशाली तो नहीं था कि उसे ना जाना पड़े ना ही ऐसा था की गाँव वाले इतना सम्मान करते हो कि उसे ना जाने दें। इसके स्थान पर भीम ने जाकर बकासुर वध किया था , लेकिन गाँव वालो के ऊपर उसका कोई विशेष अधिकार नहीं था।
हम प्राचीन कथाओं के ऋषियों को ब्राह्मण कहकर उनको जाति में बाँटते रहते जबकि वो जाति रहित थे। उस समय जातियाँ तो नहीं थी लेकिन पैतृक व्यवसाय दो देखा जा सकता है। महाभारत लिखने वाले वेद व्यास की माता मछुहारे की बेटी थी , बताया जाता है कि रामायण लिखने वाले वाल्मीकि एक समय डाकू थे , फिर भी समाज ने उन्हें इतना सम्मान दिया। महर्षि विश्वामित्र एक राजा से ऋषि बने।
नीचे दिए इस चित्र को देखिए क्या लिखा है ?
"ब्राह्मणिक पितृसत्ता का दमन कर दो"
अब ब्राह्मणिक पितृसत्ता क्या बला है भाई ? यदि केवल पितृसत्ता की बात हो तो पितृसत्ता पूरे विश्व में रही है। अब भारत छोड़कर विश्व भर की समस्याओं का दोष ब्राह्मण लेंगे ?
जातिवादी हिंसा में ना शामिल होते हुए भी ब्राह्मण ही दोष लेगा
भारत की हर समस्या का दोष ब्राह्मण को देना बड़ा सरल है , इससे कोई राजनैतिक नुकसान होने की सम्भावना नही दिखती । किसी प्रताडन में यादव शामिल हो , जाट शामिल हो , ठाकुर शामिल हो , या ब्राह्मण शामिल हो लेकिन दोष सभी का ब्राह्मण को ही है।
दलितों पर अत्याचारों की घटनाओं का विश्लेषण करके पता चलता है कि अधिकांश घटनाओं में ब्राह्मण एक पक्ष होता ही नहीं है। इस पृष्ठ पर भारत के जातीय दंगो या झगड़ो की सूची है। इसमें ब्राह्मणों का नाम उन्ही स्थानों पर आता है जहाँ वो मारे गए।
दलित को किसी ने भी मारा हो दोष तो ब्राह्मणो को दिया जाना है तो क्या हर्ज कि फिल्म में नाम बदलकर ब्राह्मण कर दिया जाए। जिसको ये ही नहीं जानना है कि उस पर हो रहा अत्याचार आ कहाँ से रहा है , क्या उस पर अत्याचार घटेगा ?
इस फिल्म में जो दिखाया गया है वो भारत में हो तो रहा है , सत्य घटना पर आधारित भी है फिल्म , बदलाव बस इतना है कि किया किसी और ने और फिल्म ने दिखाया ब्राह्मण।
गालियाँ और भड़ास निकलना सामान्य है
राजनैतिक स्तर पर ब्राह्मणों को जमकर गालियाँ दी जाती है जो जिसको समाज सेवा के काम गिना जाता है ।
कालिजों में अक्सर कुछ जातिवादी ग्रुप बन जाते हैं जिनका काम ब्राह्मण छात्रों को गालियाँ देना होता है। मेरे कालिज के कुछ जातिवादी ग्रुप अपनी मंत्रणाएँ करते थे और उन मंत्रणाओं मे जिन्हे गालियॉं दी जाती उनमे मैं भी था। कारण ? मेरा ब्राह्मण होना। कालिज जैसे स्थान में जहाँ बड़े बड़े जात धर्म छोड़ देतें हैं वहाँ ये खुद को अलग थलग करके फिर दूसरों को जातिवादी भी बताते हैं। संयोग से उन मंत्रणाओं में जाने वाले सभी लोगों को ये बाते पसंद नहीं आती थी , उन्ही कुछ के कारण मुझे इस घृणा का पता भी चला था।
घृणा के कारण दलित नेतृत्व से सद्भाव नदारद
समाज मे ये घृणा इतनी अधिक हो चुकी थी कि दलों को ब्राह्मणों से किसी राजनैतिक लाभ की भी इच्छा नहीं थी। २००७ के चुनाव के पूर्व स्वयं सुश्री मायावती जी को ये विश्वास नहीं था कि ब्राह्मण उनको वोट दे सकते हैं। उनका मष्तिस्क ये कल्पना किये हुए था कि जितना गुबार उनके मन में ब्राह्मणो के प्रति है, ब्राह्मण उससे कहीं अधिक नफरत उनसे करते हैं। लेकिन जब उन्होंने अपना मन बदला तो परिणाम सबने देखा। जो पेड़ आपको छाया दे सकता है आप आँख मूँदकर काटने में लगे हो।
आज किसी भी दलित नेतृत्व को ब्राह्मण के समर्थन से भय लगता है , नफरत के आधार तो समर्थन प्राप्त हुआ वो कहीं चला ही ना जाए।
ये लिखते तो है जाति है कि जाती नहीं , लेकिन जाति के ना जाने की सबसे बड़ी बाधा वो स्वयं बने हैं। अरे आपको जाती समाप्त करनी होती तो लोग अंतर्जातीय विवाह कर रहे हैं उनसे मिलकर उनको प्राहोत्साहन देते।
प्रदेश या राष्ट्रिय स्तर पर कोई ब्राह्मण दल नहीं
कोई बड़ा राजनैतिक दल नहीं जो केवल ब्राह्मणों का हो। कोई बड़ा नेता नहीं जो खुलकर खुद को ब्राह्मण नेता कहता हो। जबकि अन्य सभी समुदायों के नेता भारत में हैं , फिर भी ब्राह्मण पर प्रथम हमला होता है।
उत्तर प्रदेश में यादव 10 प्रतिशत हैं लेकिन उनका अपना एक अलग राजनैतिक दल है , ब्राह्मण भी 10 प्रतिशत हैं उनका अलग राजनैतिक दल नही है . उत्तराखण्ड में ब्राह्मणो का प्रतिशत 30 है , फिर भी अलग दल नही . पाँच प्रतिशत जाटो की भी पार्टी है . हर प्रदेश में उसकी जातियोंं के अनुसार पार्टियाँ हैं कहीँ ठाकुर , कहीँ मराठा , कहीँ राजपूत और ये सभी बडी सहजता से जातिवाद का दोष ब्राह्मणो पर मढते रहते हैं .
दलितों के अंदर की जातियाँ क्योँ शेष हैं ?
मान लेते हैं कि जातिगत विवाह में ब्राह्मण आड़े आते हैं। तो क्या ब्राह्मण दलित और वाल्मीकि के विवाह को भी मना करते हैं ? कितने जाटव हैं जिन्होंने किसी बाल्मीकि से विवाह किया हो ? इसके उलट हजारों ब्राह्मणों के उदाहरण हैं जिन्होंने दलितों से विवाह किया है. डाक्टर भीमराव आंबेडकर जी की पत्नी सविता ब्राह्मण थी , राम विलास पासवान जी की पत्नी ब्राह्मण हैं ? लेकिन दलित वाल्मीकि विवाह के कितने उदाहरण आप दे सकते हैं ? दोष देना सरल है लेकिन कर के भी दिखाना चाहिए। दलितों के अंदर की जतियाँ क्यों समाप्त नहीं हो जा रही हैं , उसे कौन रोक रहा है ?
भारत में आज जो लोग जातिवाद तोड़ रहे हैं उनमे ब्राह्मण ही सबसे अग्रणी है। अंतर्जातीय विवाह करने वालों में ब्राह्मणों का प्रतिशत उनकी आबादी की तुलना में सबसे अधिक है।
इस पलायन के लाभ हानि।
व्यक्तिगत तौर मैंने बड़े जीवनकाल तक भारत से बाहर रहने की नहीं सोची , भ्रमण अवश्य किया। कालिज के समय तक तो मेरा मानना था कि इससे भारत का नुकसान होता है। फिर मैं बहुत भारत प्रेमी रहा हूँ , इसलिए ये विचार नहीं आते थे कि विदेशों में जाकर रहूँ। बाद में ज्यो ज्यो व्यावसायिक अनुभव हुआ तो लाभ हानि के बहुत से पक्ष दिखाई देने लगे.
भारत के समाज लम्बे समय तक व्यवसाय विरुद्ध माहौल भी रहा है। इस परिस्थियों में भारतीय युवा के समक्ष एक ही विकल्प होता था , सरकारी नौकरी। क्योंकि निजी क्षेत्र तो भारत में विकसित हो नहीं पाया। निजी क्षेत्र विकसित नहीं होगा तो करदाता नहीं होंगे। करदाता नहीं होंगे तो सरकारी नौकरियाँ कहाँ से आएँगी। निजीक्षेत्र बढ़ता है तो सरकारी नौकरियाँ स्वयं ही बढ़ती है। यदि चालीस वर्ष पूर्व को प्रतिभा पलायन ना करके भारत में रहे तो उसे यहाँ पर उतने अवसर ही नहीं होंगे। वो प्रतिभा यहाँ रहकर समाज को कुछ नहीं दे पायेगी। बाहर जाकर वहाँ अपना विकास करके और उस धन का कुछ भाग अपने परिवारों को भारत में भेजकर थोड़ा ही सही , अर्थव्यस्था में योगदान तो दिया। फिर वहाँ काम करने वाले लोगों की छवि के कारण ही भारत में IT सेक्टर में काम आया। जिससे यहाँ रोजगार बढ़ें। अब अमरीका में भारतीयों की संख्या एक प्रतिशत है , कनाडा में पाँच प्रतिशत है , और इंग्लॅण्ड में भी पाँच प्रतिशत के आसपास है। ये संख्याएँ इतनी हैं कि राजनीति को भी थोड़ा बहुत प्रभावित कर पाए। तो एक प्रकार से इस पलायन से भारत को लाभ ही पहुँचा है।विदेशी भारतीयो के कारण भारत में निवेश आता है , भारत के राजनैतिक सम्बंध सुधरते हैं .
भारत की जनसँख्या काफी है , उसकी तुलना में विदेश जाने वाले लोगों की कुल संख्या नगण्य है। भारत के व्यवसाय के विरुद्ध माहौल में ये लोग भारत में कुछ ख़ास कर भी नहीं सकते थे। विदेशो में रहकर भी ब्राह्मण भारत और भारतीय संस्कृति का नाम ऊँचा ही करता है। भारत से पलायन करके भी मन में भारत ही बसा होता है।
भारतीय समाज सदैव परिवर्तन शील रहा है। समय समय पर प्रथाएँ पुरानी होती रही है और हमारा समाज उनको छोड़ता रहा है। समाज में जब परिवर्तन के लिए आंदोलन और क्रांतियाँ होती है तब कुछ समय के लिए जोश बहुत अधिक होता है उस दिशा में झुकाव थोड़ा अधिक हो जाता है। तब कोई नई बुराई जन्म ले रही है इस ओर किसी का ध्यान नही जाता . लेकिन समय के साथ वो ठीक भी हो जाता है। पिछली शताब्दी का ब्राह्मण विरोधी माहौल इसी अधिक झुकाव का परिणाम है। जो समय के साथ ठीक हो जायेगा।
उम्मीद करता हूँ कि जब ब्राह्मणों पर भड़ास निकाल लेने के बाद वो भड़ास शांत होगी तब भारत से जातिवाद भी समाप्त होगा।
जिस श्री कृष्ण जी के मंदिर में मीराबाई पूजा करने जाती थी, उसके मार्ग में एक छोटा बगीचा था। उसमें कुछ घनी छाया वाले वृक्ष भी थे। उस बगीचे में भगतों के साथ संत रविदास जी सत्संग कर रहे थे। सुबह के लगभग 10 बजे का समय था। मीरा जी ने देखा कि इन संत से तो मैं पहले भी मिल चुकी हूं और मीरा बाई देखती है कि यह संत शिरोमणि सतगुरु रविदास जी महाराज है जिन्होंने मुझे एक बार पहले गिरधर नागर की तस्वीर भी दी थी चलो आज फिर इनसे भेंट करते यहाँ परम पिता परमात्मा की चर्चा या कथा चल रही है। कुछ देर सुनकर चलते हैं।
संत रविदास जी ने सत्संग में संक्षिप्त सृष्टि रचना का ज्ञान सुनाया। कहा कि श्री कृष्ण जी यानि श्री विष्णु जी से ऊपर अन्य सर्वशक्तिमान परमात्मा है।
यदि भगति करने के बाद भी जन्म-मरण समाप्त नहीं हुआ तो भक्ति करना न करना समान है। जन्म-मरण तो श्री कृष्ण जी (श्री विष्णु) का भी समाप्त नहीं हुआ।। फिर
उसके पुजारियों का कैसे होगा। जैसे हिन्दू संतजन कहते हैं कि गीता का ज्ञान श्री कृष्ण अर्थात् श्री विष्णु जी ने अर्जुन को बताया। गीता ज्ञानदाता गीता अध्याय 2 श्लोक 12, अध्याय 4 श्लोक 5, अध्याय 10 श्लोक 2 में स्पष्ट कर रहा है कि हे अर्जुन! तेरे और मेरे बहुत जन्म हो चुके हैं। तू नहीं जानता, मैं जानता हूँ। इससे स्वसिद्ध है कि श्री कृष्ण जी का भी जन्म-मरण समाप्त नहीं है। यह अविनाशी नहीं है। इसीलिए गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में गीता बोलने वाले ने कहा है कि हे पारथ! तू सर्वभाव से उस परमेश्वर की शरण में जा। उस परमेश्वर की कृपा से ही तू सनातन परम धाम को तथा परम शांति को प्राप्त होगा।
संत रविदास जी के मुख कमल से ये वचन सुनकर परमात्मा के लिए भटक रही मिरा बाई कि आत्मा को नई रोशनी मिली। सत्संग के उपरांत मीराबाई जी ने जगत गुरु रविदास महाराज से प्रसन्न किया कि हे satguru Ravidas ji Maharaj जी! यदि आपकी आज्ञा हो तो मेरा एक प्रश्न है।मेरी शंका का समाधान करो। सतं रविदास जी ने कहा कि प्रश्न करो पुत्री!
प्रश्न:- हे गुरू जी! आज तक मैनें किसी से नहीं सुना कि श्री कृष्ण जी से ऊपर भी कोई परमात्मा है। आज आपके मुख से सुनकर मैं दोराहे पर खड़ी हो गई हूँ। मैं मानती हूँ कि संत झूठ नहीं बोलते। संत रविदास जी ने कहा कि आपके धार्मिक अज्ञानी गुरूओं का दोष है जिन्हें स्वयं ज्ञान नहीं कि आपके सद्ग्रन्थ क्या ज्ञान बताते हैं? देवी पुराण के तीसरे स्कंद में श्री विष्णु जी स्वयं स्वीकारते हैं कि मैं (विष्णु), ब्रह्मा तथा शंकर नाशवान हैं। हमारा आविर्भाव (जन्म) तथा तिरोभाव (मृत्यु) होता रहता है।
मीराबाई बोली कि हे महाराज जी! भगवान श्री कृष्ण मुझे साक्षात दर्शन देते हैं। मैं उनसे संवाद करती हूँ। संत रविदास जी ने कहा कि हे मीराबाई ! आप एक काम करो। भगवान श्री कृष्ण जी से ही पूछ लेना कि आपसे ऊपर भी कोई मालिक है। वे देवता हैं, कभी झूठ नहीं बोलेंगे। मीराबाई को लगा कि वह पागल हो जाएगी यदि श्री कृष्ण जी से भी ऊपर कोई परमात्मा है ।
रात्रि में मीरा जी ने भगवान श्री कृष्ण जी का आह्वान किया। त्रिलोकी नाथ प्रकट हुए। मीरा ने अपनी शंका के समाधान के लिए निवेदन किया कि हे प्रभु! क्या आपसे ऊपर भी कोई परमात्मा है। एक संत ने सत्संग में बताया है। श्री कृष्ण जी ने कहा कि मीरा! परमात्मा तो है, परंतु वह किसी को दर्शन नहीं देता। हमने बहुत समाधि व साधना करके देख ली है। मीराबाई जी ने सत्संग में संत रविदास जी से यह भी सुना था कि उस पूर्ण परमात्मा को मैं प्रत्यक्ष दिखाऊँगा। सत्य साधना करके उसके पास सतलोक में भेज दूँगा। मीराबाई ने श्री कृष्ण जी से फिर प्रश्न किया कि क्या आप जीव का जन्म-मरण समाप्त कर सकते हो? श्री कृष्ण जी ने कहा कि यह संभव नहीं। संत रविदास जी ने कहा था कि मेरे पास ऐसा भक्ति मंत्र है जिससे जन्म-मरण सदा के लिए समाप्त हो जाता है। वह परमधाम प्राप्त होता है जिसके विषय में गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा है कि तत्वज्ञान तथा तत्वदर्शी संत की प्राप्ति के पश्चात् परमात्मा के उस परमधाम की खोज करनी चाहिए जहाँ जाने के पश्चात् साधक फिर लौटकर संसार में कभी नहीं आते। उसी एक परमात्मा की भक्ति करो। मीराबाई ने कहा कि हे भगवान श्री कृष्ण जी! संत जी कह रहे थे कि मैं जन्म-मरण समाप्त कर देता हूँ। अब मैं क्या करूं। मुझे तो पूर्ण मोक्ष की चाह है। श्री कृष्ण जी बोले कि मीरा! आप उस संत की शरण ग्रहण करो, अपना कल्याण कराओ। मुझे जितना ज्ञान था, वह बता दिया। मीरा अगले दिन मंदिर नहीं गई। सीधी संत जी के पास अपनी नौकरानियों के साथ गई तथा दीक्षा लेने की इच्छा व्यक्त की तथा श्री कृष्ण जी से हुई वार्ता भी संत रविदास जी से साझा की। उस समय छूआछात चरम पर थी। ठाकुर लोग अपने को सर्वोत्तम मानते थे। परमात्मा मान-बड़ाई वाले प्राणी को कभी नहीं मिलता। मीरा जी तुरंत रविदास जी के पास गई और बोली, संत जी! मुझे दीक्षा देकर मेरा कल्याण करो। संत रविदास जी ने बताया कि बेटी ! मैं चमार जाति से हूँ। आप ठाकुरों की बेटी हो। आपके समाज के लोग आपको बुरा-भला कहेंगे। जाति से बाहर कर देंगे। पहले आप विचार कर लें। मीराबाई अधिकारी आत्मा थी। परमात्मा के लिए मर-मिटने के लिए सदा तत्पर रहती थी। बोली, संत जी! आप मेरे पिता, मैं आपकी बेटी। मुझे दीक्षा दो। भाड़ में पड़ो समाज। कल को जब मैं अनेकों प्रकार की योनियों में भटक कर नर्क भोगूगीं , तब यह ठाकुर समाज मेरा क्या बचाव करेगा?
मीराबाई ने गुरु पर अटूट विश्वास किया और निर्गुण भक्ति की जिसे आज मीरा की ख्याति देश विदेश में फैली हुई है
श्री कृष्ण जी के मंदिर में मीराबाई पूजा करने जाती थीं क्योंकि वह श्री कृष्ण को अपने पति के रूप में अपने दिमाग में और अपने दिल में बसा चुकी थी । जब मीरा बाल्यावस्था मैं थी उस वक्त उसकी मां छत पर घी मथ रही थी और मीरा अपनी मां के साथ खेल रही थी तभी रास्ते से एक बारात दूल्हे राजा के साथ जा रही थी तभी मीरा ने देखा तो वह अपनी मां से कहने लगी कि मां इतने आदमी बैंड बाजे के साथ और यह एक आदमी घोड़ी पर बैठा जा रहा है यह कहां जा रहा है और कौन है तब उसकी माता कहती है कि बेटा यह दूल्हा है और यह बारात है यह गांव में बरात आई है इसी तरह बैठे तेरी भी बारात आएगी एक दिन तभी मीरा कहती है कि अगर मेरी बारात आएगी तो मेरा दूल्हा कैसा होगा एक बार उसकी मां इस बात को इग्नोर कर देती है मगर मीरा फिर पूछती है अब सोचने लगती है अब मैं क्या उत्तर दु । सामने मंदिर में जो घर में पूजा घर होता है वहां गिरिधर नागर अर्थात कृष्ण भगवान की तस्वीर रखी थी उसकी मां ने इशारा करते हुए कहा कि बेटा तुम्हारा दूल्हा ऐसा होगा जैसे गिरधर नागर इतना सुंदर तब मीरा ने बाल्यावस्था से ही गिरधर नागर को अपना पति मान लिया था और हमेशा उनको अपना पति के रूप मैं ही उनकी पूजा की लेकिन जब गुरु रविदास जी महाराज से भेंट हुई तब उन्हें आध्यात्मिक ज्ञान हुआ और उन्होंने आध्यात्मिक गुरु सतगुरु रविदास जी महाराज को बनाया।