---------------------------------------------------------

बुधवार, 24 जुलाई 2024

गुरु रविदास जी महाराज ने वेदों, पुराणों को ठुकरा कर मान्यता नहीं दी!


 गुरु रविदास जी महाराज ने वेदों, पुराणों को ठुकरा कर मान्यता नहीं दी!

मनुवादी वेदों, पुराणों, रामायण, गीता और मनुस्मृति आदि किताबों में जिस प्रकार भारत के मूलनिवासी राजपूत कंस रावण, महिसासुर, दानवीर बलि आदि वीर राजाओं वैश्यों, शूद्रों और अछूतों को कानून बना कर अछूत, राक्षस बना कर छल कपट और खून खराबे का वर्णन किया गया है, उस से यह साफ साफ ज्ञात होता है कि यह किताबें ना हो कर के मनुवादियों ने भारत के मूलनिवासियों को गुलामी की जंजीरें और बेड़ियाँ बना कर अपमानित करने के लिए काले दस्तावेज तैयार किए हुए हैं, इसलिए इन का अध्ययन करने के बाद गुरु रविदास जी महाराज ने इन को पूरी तरह रद्द करते हुए फरमाया है कि ---

वेदों, पुराणों, रामायण और गीता की विचारधारा से ना तो ईश्वर की प्राप्ति हो सकती है और ना ही ज्ञान प्राप्त होता है। ये केवल भारत के मूलनिवासियों को गुलाम बनाए रखने के लिए बनाए गए संविधान मात्र हैं, जिन का उल्लंघन करने पर भारत के मूलनिवासियों को कठोर से कठोर सजा दी जाती थी और जो आज भी जारी है क्योंकि आज भी जब कोई इन के ऊपर उंगली उठाता है तो उस की आलोचना करने वालों को कानून का भय दिखा कर के पुलिस स्टेशनों और कोर्ट कचैहरियों में प्रताड़ित किया जाता है इसलिए गुरु रविदास जी महाराज ने जो सत्य को सामने लाने का प्रयास किया है, उस के बारे में पंजाबी लेखक प्रोफेसर लाल सिंह जी अपनी पुस्तक *सतगुरु रविदास जी की ऐतिहासिक जीवनी * के पृष्ठ संख्या 76 के ऊपर लिखते हैं कि----

गुरु रविदास जी महाराज ने वेदों, पुराणों के ऊपर ऐसी कठोर चोट मारी है कि समूची भगती लहर उन की विचारधारा मानने के लिए मजबूर हो गई थी, चाहे गुरु नामदेव जी भी वेदों, पुराणों को रद्द करते हैं परंतु यह कह कर कि अब मैं वेदों, पुराणों की कविता का गुणगान नहीं करूंगा परंतु उन्होंने ना गाने का कारण स्पष्ट नहीं किया हैं परंतु गुरु रविदास जी वेदों, पुराणों को इसलिए रद्द करते हैं कि इन की विचारधारा के अनुसार ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती है क्योंकि इन के ऊपर अमल करने के साथ मन शंकाओं दुविधाओं के साथ भर जाता है, इसी कारण प्रभ प्राप्ति वैसे ही संभव नहीं है जिस के परिणाम स्वरुप गुरु रविदास जी की विचारधारा समूची भगती लहर की अगवाई का शक्तिशाली साधन बन गई है। गुरु जी की इस शक्तिशाली विचारधारा ने हिंदुओं के सबसे पवित्र तीर्थ स्थान चाहे वह हरिद्वार हो या वाराणसी हो, सब से महान, प्रसिद्ध, सब से अधिक पूजी जाने वाली भगवान माता गंगा को अपने बश में कर लिया है, जब कि ब्राह्मण तो अछूत की छाया से भी भ्रष्ट हो जाते हैं फिर गंगा भगवान सतगुरु रविदास अछूत के पुराने टूटे गांठे जाने वाले छित्रों को धोने वाली पानी की कुंडी (कठौती) के बीच किस प्रकार प्रवेश कर गई? 

कोई भी भगवान किसी भी भगत की इच्छा के अनुसार अपनी विचारधारा के नियमों को नहीं तोड़ सकता फिर हिंदुओं और ब्राह्मणों की सब से पवित्र गंगा क्यों भ्रष्ट हो गई? क्यों ब्राह्मणों की भगवान गंगा खुद गुरु रविदास जी की कठौती के बीच प्रवेश करके भ्रष्ट हो गई? सब से महत्वपूर्ण परंतु हैरान करने वाली बात यह है कि गंगा मैया तो ब्राह्मणी है फिर गंगा क्यों गुरु रविदास जी की इच्छा के अनुसार कुंडी में प्रवेश कर के भ्रष्ट हो गई। 

उपरोक्त सवालों का एक ही जवाब है कि गंगा प्रभु का सृजन है, ब्राह्मण का सृजन नहीं है क्योंकि ब्राह्मण खुद प्रभ का सृजन है। वह किसी भी तरह गंगा का सृजन करने में समर्थ नहीं है। ब्रह्मांड का कण कण परमात्मा का सृजन है। ब्रह्मांड की हर शक्ति परमात्मा का सृजन है। ऋद्धियां, सिद्धियां और निधियां सब परमात्मा का सृजन है। जब जीव परमात्मा को प्राप्त कर स्वयं परमात्मा बन जाता है तो यह ऋद्धियां, सिद्धियां और निधियां अर्थात सब शक्तियां परमात्मा द्वारा बनाए गए जीव के भी अधीन हो जाती हैं। जब गुरु रविदास जी ने परमात्मा को प्राप्त कर लिया था तब उपरोक्त और ब्रह्मांड के बीच विचरण कर रही सर्वशक्तियों के वे ही मालिक बन गए और यह शक्तियां उन की सेवा के बीच तत्पर हो गई। गंगा सहित उन की पैदा की गई हर शक्ति उन की सेवा के बीच हाजर हो गई। गुरु रविदास जी इस महान सत्य को परिपक्व करते हुए फरमाते हैं----

दारीदु देखि सभ को हसै ऐसी दसा हमारी।। 

असट दसा सिधि कर तलै सभ किरपा तुमारी।।  आदि ग्रंथ पन्ना (858) 

इस महान सत्य की प्रौढ़ता गुरु रविदास जी करते हुए फरमाते हैं----

शलोक म: ३।। 

ब्रह्म बिदै तिस का ब्रहमत रहै

एक सबदि लिव जाइ।। 

नव निधि अठारह सिधि पिछै लगाईऐ फिरहि

जो हरि हिरदै सदा वसाइ।। 

परंतु गुरु रविदास जी प्रभ की शक्ति प्राप्त कर के प्रभ का सृजन कर के किसी भी अंश के साथ संपर्क कर के उस की सृष्टि और मनुष्यता के भले के लिए दिव्य शक्ति का प्रयोग कर सकते हैं, यही कारण है कि गुरु रविदास जी गंगा नदी के बीच गंगा के स्वरूप का सृजन करने में सफल रहे हैं। इस ढंग के साथ सृजित गंगा गुरु जी की सेवक बन कर के हर क्षेत्र में हर स्थान पर और हर तरह गुरु रविदास जी की सेवा में तत्पर रहती है इसी कारण गंगा उन की सेवक है। गंगा गुरु रविदास जी का ही सृजन है। प्रभ बने (संत अनंतहि अंतरु नाही।। नानक ब्रह्म गियानी आप परमेशर।।) 

गुरु रविदास जी सृष्टि सृजन की सामर्थ्य रखते हैं और वे हर चमत्कार कर सकते हैं जिस की मनुष्यता के भले के लिए जरूरत है। गंगा नदी के बीच से गंगा का सृजन कर के उसे एक चमार की दमड़ी स्वीकार करवाई जाए और उस के बदले अजीब अद्भुत और आश्चर्य चकित कर देने वाला सोने का कंगन चमार गुरु रविदास जी को भेंट किया। गुरु रविदास जी ने यह करामात इस कर के की ताकि ब्राह्मण के अहंकार को चकनाचूर कर के उन को इंसानियत का सबक सिखाया जा सके और समूचे भारत के बीच बराबरी और कुदरत के नियमों के अनुसार न्याय को स्थापित किया जा सके। प्यार से भरपूर विश्व भाईचारा सृजित किया जा सके। अनेकों लोग यह सवाल करते हैं कि क्या गंगा का सृजन किया जा सकता है? श्री गुरु ग्रंथ साहिब के बीच गुरु नामदेव जी को हम सबूत के तौर पर प्रस्तुत करके दृढ़ता के साथ कह सकते हैं कि गंगा का सृजन किया जा सकता है। 

1 विसमिली गऊ देहू जिवाई।।

नातूर गरदनि मारउ ठाइ।।२।।

2 करहि त मुई गउ देउ जीआइ।।

सभु कोई देखै पतिआइ।।१८।।

नामा प्रणवै सेल मसेल बछरा मेली।। १९।।     आदि ग्रंथ पन्ना (1166) 

अर्थः:---- सुल्तान ने गुरु नामदेव जी को कहा कि मरी हुई गाय को जिंदा करो नहीं तो मैं अभी ही तेरी गर्दन काट दूंगा! गुरु नामदेव जी प्रभु को कहते हैं कि हे प्रभ! मरी हुई गाय को जिंदा कर दो ताकि मरी हुई गाय को जिंदा देख कर सब को तसल्ली हो जाए गी कि प्रभ ने गाय जिंदा कर दी और गुरु नामदेव जी ने गाय की पिछली टांगों को रस्सी के साथ बांध कर के बछड़े को दूध चुआया और दूध भी लिया। दयालु प्रभ अपने भक्तों को अपनी शक्ति प्रदान कर के दिव्य चमत्कार करवाता है। गुरु नामदेव जी इस सिद्धांत को परिपक्व करते हैं और करामातें कर के भटके लोगों को प्रमाणिकता के साथ सत्य सिद्ध कर के दिखाते हैं। 

उपरोक्त दृष्टांत से स्पष्ट हो जाता है कि ईश्वर अपने सच्चे सुच्चे भक्तों और अनुयायियों की बात सुनते हैं और उन की इच्छा के मुताबिक ईश्वर कार्य करते हैं जिन को स्थानीय भाषा में चमत्कार या करामात कहा जाता है इसलिए यह चमत्कार उन्हें सतपुरुषों के सत्कर्मों के कारण ईश्वर को करने पड़ते हैं इसलिए गुरु रविदास जी महाराज ने जो चमत्कार किए हैं वे सभी उन की कठोर भगती की शक्ति के कारण ही हो सके हैं और उन को कोई भी माई का लाल चैलेंज नहीं कर सकता है परंतु मनुवादियों के राम और कृष्ण अपने ही परिवार और वंश के लोगों का खून बहाते हैं मगर भारत के मूलनिवासी संत, पीर, गुरु ईश्वर से ही सारे कार्य करवा लेते हैं। 

राम सिंह शुक्ला।

शनिवार, 20 जुलाई 2024

गुरु गुरु रविदास जी महाराज की शिक्षा का वास्तविक सत्य


 गुरु गुरु रविदास जी महाराज की शिक्षा का वास्तविक सत्य।।

               ।।भाग 4।।

गुरु रविदास जी महाराज की जीवनी लिखते समय ब्राह्मण लेखकों ने गुरु रविदास जी महाराज को पिछले जन्म का ब्राह्मण सिद्ध कर के पिछले जन्मों का दण्ड भुगतने के लिए चमार जाति में चर्मकार के रूप में अत्यंत गरीब और खानाबदोश परिवार में जन्मे व्यक्ति के रूप में जिक्र किया हुआ है। इन लेखकों के अनुसार गुरु रविदास जी के माता-पिता को भी जूते बनाते हुए दिखाया गया है।छोटी आयु में ही उन की शादी कर दी गई थी परंतु गुरु रविदास जी महाराज जूते बना कर के मुफ्त में साधु, संतों, फकीरों को बांटा करते थे जिस से गुरु रविदास जी के पिता संतोष दास जी बहुत दुखी हो गए थे और दुखी हो कर के उन्होंने उन को परिवार से अलग कर दिया था। माता पिता ने उन्हें एक छोटे से जमीन के टुकड़े के ऊपर अपनी झोपड़ी बनाने के लिए दिया था। गुरु रविदास जी ने उस जमीन के टुकड़े के ऊपर एक झोपड़ी बना कर  के जूते बनाने का कार्य कर के अपने परिवार का पालन पोषण करते थे। 

उपरोक्त कथाओं का अगर पोस्टमार्टम किया जाए तो ब्राह्मणों की मूर्खता की पोल खुलती हुई नजर आती है क्योंकि कभी भी किसी भी मृत शरीर की आत्मा दोबारा जन्म नहीं लेती है और फिर उस आत्मा को किसी अछूत के घर में जन्म लेने का किसी का भी आदेश नहीं होता है। गुरु रविदास जी महाराज को ऐसी कल्पित कथा के माध्यम से अत्यंत निर्धन और विवेकहीन लिखा गया है, जो किसी के गले में नहीं उतरता है। गुरु रविदास जी महाराज अपनी वाणी में फरमाते हैं कि ----

चमरठा गांठी ना जानी जिस से यह सपष्ट ज्ञात होता है कि गुरु रविदास जी महाराज चमड़े के जूते गाँठना या मरम्मत करना नहीं जानते थे, फिर गुरु रविदास जी महाराज का परिवार चमड़े और कपड़े के उद्योगपति था। जिस से उन की आमदनी बहुत ही अधिक हुआ करती थी। ऐसे अमीर और संपन्न परिवार के अमीर व्यक्ति को झुग्गी-झोपड़ी में निवास करते हुए दिखाना कथा लिखने वालों की बुद्धि का दिवाला निकला हुआ नजर आता है। गुरु रविदास जी महाराज के बाबन राजा और बादशाह शिष्य थे जो अपने परिवार सहित सतगुरु रविदास जी महाराज का सत्संग सुनने के लिए जाया करते थे। जब वे सत्संग सुनने जाते थे तो गुरु जी को भेंट करने के लिए सोने, चाँदी, हीरे,और रुपये चढ़ाते थे मगर ब्राह्मणों ने गुरु रविदास जी महाराज को अत्यंत कंगाल और गरीब व्यक्ति के रूप में अपने साहित्य में वर्णित किया हुआ है। 

गुरु रविदास जी का धर्म आदि धर्म:---गुरु रविदास जी महाराज दिन रात एक कर के सामाजिक परिवर्तन के लिए जगह-जगह भ्रमण किया करते थे जिस के दौरान वे गाँव गांव जा कर के अपनी ओजस्वी और क्रांतिकारी वाणी के माध्यम से सामाजिक चेतना पैदा किया करते थे। जिन अछूत लोगों को सत्संग सुनने का कोई अधिकार नहीं था उन को वे सामूहिक रूप से सत्संग सुना कर के, मूलनिवासी राजपूत, वैश्य, शूद्र और अछूत चारों वर्णों में सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक जागृति पैदा किया करते थे। 

गुरु रविदास जी महाराज ने अपने धर्म के बारे में फरमाया है---

आद से प्रकट भयो जा को ना कोउ अंत।।

आदधर्म रविदास का जाने कोउ बिरला संत।।

इन शब्दों से स्पष्ट ज्ञात होता है कि गुरु रविदास जी महाराज आदधर्म को मानने वाले और आदधर्म का प्रचार करते थे मगर ब्राह्मणों ने गुरु रविदास जी महाराज को अपना हिंदू साबित करने के लिए कल्पित कथाएं घड़ी हुई हैं। जिन में गुरु रविदास जी महाराज ब्राह्मणों की तरह धोती, तिलक लगा कर के शंख बजाते हैं। छाती चीर कर के सोने, चांदी, तांबे और धागे के जनेउ निकालते हुए दर्शाए गए हैं। 

गुरु रविदास जी की श्रेष्ठता का श्रेय लेने के लिए ही शारदानंद ब्राह्मण टीचर बताया गया:--- 

जब गुरु रविदास जी महाराज ने ब्राह्मणों के सारे ढोंगों, पाखंडों, आडंबरों का बुरी तरह से पोस्टमार्टम करके सत्य को सामने लाने का कार्य किया था, चारों वर्णों में धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक चेतना पैदा की थी, छुआछूत को खत्म करने के लिए राष्ट्रीय आंदोलन शुरू किया था, चारों वर्णों को एक पंक्ति में बैठा कर के भोजन करवाया था, राजाओं, महाराजाओं और बादशाहों से अछूतों को सारे अधिकार दिलाए थे जिस के कारण गुरु रविदास जी महाराज को संत शिरोमणि की उपाधि से विभूषित किया गया था। यही नहीं उन को गुरुओं के गुरु भी कहा गया है और विदेशी शासकों ने भी उन को अपना गुरु स्वीकार कर के अपना जीवन सफल बनाया था। गुरु जी की इन्हीं विशेषताओं का लाभ उठाने के लिए ब्राह्मणों ने गुरु रविदास जी महाराज को अपना कर के इतिहास में लिखा हुआ है। 

जब गुरु रविदास जी महाराज ने ब्राह्मण के सारे काले कारनामों को उजागर कर के ब्राह्मणवाद को खत्म करने का ऐतिहासिक कार्य किया था, तो फिर ऐसा कौन ब्राह्मण था, जो गुरु रविदास जी महाराज को पढ़ने, पढ़ाने का कार्य कर सकता था? गुरु रविदास जी महाराज ब्राह्मणों की ऐसी तैसी फेर रहे थे फिर भला कौन ब्राह्मण उन को गले लगा कर अपने पाँव पर कुल्हाड़ा मार लेता। 

गुरु रविदास जी महाराज के बराबर कोई भी गुरु नहीं था :--- गुरु रविदास जी महाराज के बराबर संसार में कोई गुरु नहीं था और सारा संसार रविदास जी महाराज को सर्वश्रेष्ठ गुरु स्वीकार कर बैठा था। तत्कालीन शासक गुरु रविदास जी महाराज के दर्शन करने के लिए तरसते थे जिस का उदाहरण हमें बादशाह बाबर मिलता है। जो बाबर पानीपत का युद्ध जीत कर के खुशियां मना रहा था, उस के मन में यह आया था कि मैं गुरुओं के गुरु, संत शिरोमणि गुरु रविदास जी महाराज के दर्शन करूंगा। इस से स्पष्ट सिद्ध होता है कि गुरु रविदास जी महाराज का मान सम्मान सारे संसार में फैल चुका था और इस प्रसिद्धि के कारण गुरु रविदास जी महाराज को ब्राह्मणों ने अपना शिष्य बात कर श्रेय लेने का यह प्रयास किया गया था। 

राम सिंह शुक्ला

सोमवार, 30 जनवरी 2023

चमारों का राजा कौन था?

जब भारत देश पर तुर्कों का शासन हुआ करता था तब उस समय चमार कहकर पुकारे जाने वाले वंश का भी भारत के पश्चिमी भाग पर शासन था! और उस समय इस वंश के राजा चंवरसेन थे!



चमार , उत्तरी भारत में व्यापक जाति जिसका वंशानुगत व्यवसाय चमड़े की कमाना है; यह नाम 





संस्कृत शब्द चार्मकार ("त्वचा कार्यकर्ता") से लिया गया है। चमारों को 150 से अधिक उपजातियों में


विभाजित किया गया है, जिनमें से सभी को सुव्यवस्थित पंचायतों (शासी परिषदों) की विशेषता है। जाति के सदस्य आधिकारिक रूप से नामित अनुसूचित जातियों (जिन्हें दलित भी कहा जाता है) में शामिल हैं; क्योंकि उनके वंशानुगत काम ने उन्हें मरे हुए जानवरों को संभालने के लिए बाध्य किया, चमार उन लोगों में से थे जिन्हें पहले " अछूत " कहा जाता था । उनकी बस्तियाँ अक्सर उच्च जाति के हिंदू गाँवों के बाहर रही हैं। प्रत्येक बस्ती का अपना मुखिया ( प्रधान ) होता है), और बड़े शहरों में एक प्रधान के नेतृत्व वाले एक से अधिक ऐसे समुदाय होते हैं । चमार विधवाओं को अपने पति के छोटे भाई या उसी उपजाति के विधुर से शादी करने की अनुमति देते हैं। जाति का एक वर्ग 18 वीं शताब्दी के संत और उत्तर भारत के तपस्वी शिव नारायण की शिक्षाओं का अनुसरण करता है, और इसका उद्देश्य अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा को बढ़ाने के लिए अपने रीति-रिवाजों को शुद्ध करना है । अन्य चमार बनारस (वाराणसी) के एक प्रभावशाली 16वीं शताब्दी के कवि-संत रविदास का सम्मान करते हैं, जिन्होंने प्रदूषण के विचार और इसके अनुष्ठान अभिव्यक्तियों को चुनौती दी थी । अभी भी अन्य लोगों ने भीमराव रामजी अम्बेडकर के नेतृत्व में बौद्ध धर्म अपनाया है(1891-1956)। जबकि कई अभी भी अपने पारंपरिक शिल्प का अभ्यास करते हैं, कई और व्यापक कृषि और शहरी श्रम शक्ति का हिस्सा हैं ।









 सबसे महत्वपूर्ण सतनामी समूह की स्थापना 1820 में मध्य भारत के छत्तीसगढ़ क्षेत्र में किसके द्वारा की गई थी?घासीदास, एक खेत नौकर और चमार जाति के सदस्य (एक दलित, या अछूत , जाति जिसका वंशानुगत व्यवसाय चमड़े की कमाना था, हिंदुओं द्वारा प्रदूषण के रूप में माना जाने वाला कार्य)। यद्यपि छत्तीसगढ़ के चमारों ने चमड़ा कमाना छोड़ दिया और किसान बन गए, उच्च हिंदू जातियां उन्हें प्रदूषित मानती रहीं। उनका सतनाम पंथ ("सच्चे नाम का पथ") बड़ी संख्या में छत्तीसगढ़ी चमारों (जिन्होंने क्षेत्र की कुल आबादी का एक-छठा हिस्सा बनाया) के लिए एक धार्मिक और सामाजिक पहचान प्रदान करने में सफल रहे, उनकी अपमानजनक अवज्ञा मेंउच्च जाति के हिंदुओं द्वारा उपचार और हिंदू मंदिर पूजा से उनका बहिष्कार। घासीदास को हिंदू देवताओं की छवियों को कचरे के ढेर पर फेंकने के लिए याद किया जाता है। उन्होंने नैतिक और आहार संबंधी आत्म-संयम और सामाजिक समानता की एक संहिता का प्रचार किया । कबीर पंथ के साथ संबंध कुछ चरणों में ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण रहे हैं, और समय के साथ सतनामियों ने जटिल तरीकों से एक व्यापक हिंदू व्यवस्था के भीतर अपनी जगह बना ली है।



अछूत , जिसे दलित भी कहा जाता है , आधिकारिक तौर पर अनुसूचित जाति , पूर्व में हरिजन , पारंपरिक भारतीय समाज में, निम्न जाति के हिंदू समूहों की एक विस्तृत श्रृंखला के किसी भी सदस्य और जाति व्यवस्था के बाहर किसी भी व्यक्ति के लिए पूर्व नाम। 1949 में भारत की संविधान सभा और 1953 में पाकिस्तान द्वारा अपनाए गए संविधानों में इस शब्द का उपयोग और इससे जुड़ी सामाजिक अक्षमताओं को अवैध घोषित किया गया था ।महात्मा गांधी ने अछूतों को हरिजन ("भगवान हरि विष्णु के बच्चे," या बस "भगवान के बच्चे") कहा और उनकी मुक्ति के लिए लंबे समय तक काम किया। हालाँकि, यह नाम अब कृपालु और आपत्तिजनक माना जाता है। दलित शब्द का प्रयोग बाद में, विशेष रूप से राजनीतिक रूप से सक्रिय सदस्यों द्वारा किया जाने लगा, हालांकि इसका भी कभी-कभी नकारात्मक अर्थ होता है । आधिकारिक पदनाम अनुसूचित जाति अब भारत में उपयोग किया जाने वाला सबसे आम शब्द है।कोचेरिल रमन नारायणन , जिन्होंने 1997 से 2002 तक भारत के राष्ट्रपति के रूप में कार्य किया, देश में एक उच्च पद पर कब्जा करने वाले अनुसूचित जाति के पहले सदस्य थे।

कई अलग-अलग वंशानुगत जातियों को पारंपरिक रूप से अछूत शीर्षक के तहत शामिल किया गया है , जिनमें से प्रत्येक एंडोगैमी (जाति समुदाय के भीतर विशेष रूप से विवाह) के सामाजिक नियम की सदस्यता लेता है जो सामान्य रूप से जाति व्यवस्था को नियंत्रित करता है।

परंपरागत रूप से, अछूत के रूप में पहचाने जाने वाले समूह वे थे जिनके व्यवसाय और जीवन की आदतों में अनुष्ठानिक रूप से प्रदूषणकारी गतिविधियाँ शामिल थीं, जिनमें से सबसे महत्वपूर्ण थे (1) जीविका के लिए जीवन लेना, एक श्रेणी जिसमें उदाहरण के लिए, मछुआरे, (2) हत्या या मृत मवेशियों का निपटान या जीवित रहने के लिए उनकी खाल के साथ काम करना, (3) ऐसी गतिविधियों का पीछा करना जो प्रतिभागी को मानव शरीर के उत्सर्जन के संपर्क में लाए , जैसे कि मल, मूत्र , पसीना और थूक, एक श्रेणी जिसमें ऐसे व्यावसायिक समूह शामिल थे सफाई कर्मचारी और कपड़े धोने के कर्मचारी, और (4) मवेशियों या घरेलू सूअरों और मुर्गियों का मांस खाना, एक ऐसी श्रेणी जिसमें भारत की अधिकांश स्वदेशी जनजातियाँ आती हैं।

किसी विशेष विद्या का ज्ञान रखने वाला ही पंडित होता है। प्राचीन भारत में, वेद शास्त्रों आदि के बहुत बड़े ज्ञाता को पंडित कहा जाता था। ब्राह्मण : ब्राह्मण शब्द ब्रह्म से बना है, जो ब्रह्म (ईश्वर) को छोड़कर अन्य किसी को नहीं पूजता, वह ब्राह्मण कहा गया है। जो पुरोहिताई करके अपनी जीविका चलाता है, वह ब्राह्मण नहीं,
शाण्डिल्य शांडिल्य एक ब्राह्मण गोत्र है, ये वेदाध्ययन करने वाले ब्राह्मण हैं। यह गोत्र ब्राह्मणों के अनेक गोत्रों में से एक है। महाभारत अनुशासन पर्व के अनुसार युधिष्ठिर की सभा में विद्यमान ऋषियों में शाण्डिल्य का नाम भी है। याचक है।
वे हैं (1) शांडिल्य, (2) गौतम महर्षि, (3) भारद्वाज, (4) विश्वामित्र, (5) जमदग्नि, (6) वशिष्ठ, (7) कश्यप और (8) अत्रि। इस सूची में कभी-कभी अगस्त्य का भी नाम जुड़ जाता है। इन आठ ऋषियों को गोत्रकारिन कहा जाता है, जिनसे सभी 108 गोत्र (विशेषकर ब्राह्मणों के) विकसित हुए हैं।
लयुग में कौन से भगवान जिंदा (अमर) है? इस कलयुग में सात देवता आज भी मौजूद हैं। इन्हीं 7 देवताओं को कलयुग में सप्त चिरंजीवी के रूप में भी समझा जाता है। इन सात चिरंजीवी में भगवान हनुमान, श्री वेद व्यास, परशुराम, कृपाचार्य, अश्वत्थामा, बलि, विभीषण आज भी अमर हैं।
संत घासीदास जी सतगुरु रविदास जी महाराज के अनुयाई थे जिन्होंने समाज में फैली कुरीतियों को दूर करने के लिए काफी संघर्ष किया और छत्तीसगढ़ राज्य में उनको आज भी सम्मानजनक और गुरु के रूप में मानते हैं

शनिवार, 29 अक्टूबर 2022

।।राजा बलि, शुक्राचार्य और अरब देशों का इतिहास।।



।।राजा बलि, शुक्राचार्य और अरब देशों का इतिहास।।

भारतवर्ष के, मूलनिवासी शासकों की फ़ितरत रही है कि, वे हमेशा ही मिल कर नहीं रहे हैं, ये फ़ितरत आज भी जारी है। राजा बलि भी इसी कड़ी का एक जिद्दी राजा था, जिस ने दानवीर बनने के लिए, अपने दूरद्रष्टा गुरु शुक्राचार्य के आदेश को नहीं माना था और विष्णु के, छल प्रपंच से खुद तो मारा ही था, साथ में अपने तीव्र बुद्धि, गुरु शुक्राचार्य जी को भी ले डूबा और भारत के मूलनिवासी लोगों को भी गुलामी की जंजीरों के बंधनों में बॉन्ध दिया था। तत्कालीन मूलनिवासी शासक मक्का मदीना से चल रही केंद्रीय सरकार के अधीन शासन करते थे, यदि ये राजा अपने राजधर्म को समझते हुए, राजधर्म के अनुसार शासन करते तो राजा बलि और उन के गुरु शुक्राचार्य की दुर्गति नहीं हो सकती थी। वे विष्णु और लक्ष्मी को प्रश्रय देने की गलती ना करते तो शुक्राचार्य भी काणा ना होता और ना ही उन्हें केरल नगरी छोड़ कर, सत नगरी मक्का मदीना जाना पड़ता।

शुक्राचार्य और अरब का संबंध:---जब राजा बलि ने, अपनी दानवीरता का अहम नही छोड़ा, तब गुरु शुक्राचार्य केरल को त्याग कर, मक्का मदीना चले गए थे। वे वहां अपने पौत्र और्ब उर्फ अर्व्ब उर्फ हर्ब के पास जा कर रहने लगे थे। शुक्राचार्य वहां पर दस वर्षों तक रहे थे। साइक्स नामक विदेशी लेखक अपनी पुस्तक "हिस्ट्री आफ पर्शिया" में, लिखते हैं कि, और्ब, अर्व्ब, हर्ब शब्द के अपभ्रंश रूप बनते बनते ये शब्द अरब बन गया है। शुक्राचार्य का संबंध पौत्र हर्ब के नाम से इतिहास बन चुका है, जो तर्कसंगत, तर्कसम्मत लगता है, क्योंकि मक्का मदीना से ही सत्पुरुष सम्राट कैलाश जी और उन के पुत्र सिद्धचानो जी महाराज और मातेश्वरी साम्राज्ञी लोना जी ही शासन करते थे। उन्हीं के अधीन कन्याकुमारी तक राज चलता था, मगर उन के बाद केंद्रीय सत्ता कमजोर होती गई, सम्राट शिव भी ईश्वर के अंध भगत अधिक बन गए थे, जिस के कारण, यूरेशियन आक्रांताओं ने, उन की दरियादिली और शराफत का नाजायज लाभ उठाया। उन की साम्राज्ञी गौरजां उर्फ गौरां का कत्ल करबा कर, अपनी पुत्री पार्वती से, शिव को धीमा विष और भांग पिला पिला कर शहीद करवा दिया गया था। राजा बलि ने भी अपनी दानवीरता की जिद्द में अड़े रह कर, दक्षिण भारत का शासन खो दिया था।

वर्तमान मुस्लिम देश अरब:---राजा बलि की मूर्खता के कारण ही शुक्राचार्य जी को, केरल छोड़ना पड़ा था, क्योंकि मूर्ख लोग अपनी जिद्द के कारण अपने गुरु को भी डुबो देते है, इसी लिये शुक्राचार्य समझ गए थे कि, ये आदमी खुद भी डूबेगा और मुझे भी डुबो देगा, हुआ भी ऐसा ही, मगर वे अपनी जान बचा कर मक्का मदीना चले गए। वहीं अपने पौत्र और्ब के पास दस वर्ष तक रहते रहे, इसी पौत्र के नाम के कई अपभ्रंश शब्द बनते बनते अरब शब्द बन गया था, जिस से विशाल भारत का खण्ड अरब देश कहलाता आ रहा है। जिस के बाद अरब भूभाग के भी कई टुकड़े हो गए, जिन्हें आज मुस्लिम अरब देश कहा जा रहा है।

जिस प्रकार, हठी, अहंकारी राजा बलि ने, अपने गुरु शुक्राचार्य का कहा नहीं माना, ठीक वैसा ही इतिहास भारत मे बार बार दोहराया जा रहा है। वर्तमान में, साहिब कांशीराम जी भी, शुक्राचार्य का ही प्रतिरूप हुए हैं, उन्होंने भी, सारे भारत के, मूलनिवासी राजनेताओं कल्याण सिंह, लालू यादव, मुलायम सिंह यादव, पासवान आदि को एक झंडे तले इकठ्ठा करने का प्रयास किया मगर, ये राजा बलि के वंशज नहीं सुधरे और नित नई नई राजनीतिक पार्टियां बना कर, ब्रह्मा, विष्णु के वंशजों की ही सरकारें बना रहे हैं। ये अहंकारी राजनेता मूलनिवासी बोटों को बांट कर, खुद तो गुलाम बन ही रहे मगर साथ में, असहाय मूलभारतीयों को भी मनुवादियों के गुलाम बना रहे हैं। जा जाने ये दानवीर बलि, महाराजा नंद के वंशज राजनेता कब समझेंगे।

रामसिंह आदवंशी।

अध्यक्ष।

विश्व आदधर्म मंडल।

Abheya Das Deoand

शनिवार, 10 सितंबर 2022

क्यों इतने ब्राह्मण भारत छोड़कर विदेश जा रहे हैं?

 

क्यों इतने ब्राह्मण भारत छोड़कर विदेश जा रहे हैं?

अमेरिका में भारतीय मूल के लोगों में ब्राह्मणों की संख्या लगभग ३०% बताई जाती है। जबकि भारत में ब्राह्मणों की संख्या पाँच प्रतिशत से कम होने का अनुमान है । इससे प्रतीत होता है कि भारत से जाने वाले लोगों में ब्राह्मणो का अनुपात काफी है। इसमें पलायन व विकसित देशो में जाकर रहना दोनो कारण शामिल हैं .

ब्राह्मणो के भारत से पलायन का कारण है भारत में ब्राह्मण विरुद्ध राजनैतिक माहौल और कुछ स्थितियों में ब्राह्मणो पर सीधा हमला। काफी कश्मीरी पंडितों ने विदेशों में शरण ली थी , जो बेचारे उतने सक्षम नहीं थे वो आज भी अपने देश में ही शरणार्थीयों की तरह से रह रहे हैं। उनकी स्थिति बँटवारे के बाद पाकिस्तान में फँसे हिन्दुओ जैसी है , गरीब के लिए तो पलायन भी कठिन होता है।

कश्मीर के अतिरिक्त भी भारत में अलग अलग हिस्सों में ब्राह्मणों पर सीधे हमले हुए हैं। और कुछ नहीं तो ब्राह्मण विरोधी राजनीति एक चलन बन गया था। तमिलनाडु से बहुत ब्राह्मणो ने पलायन किया है। आंध्र प्रदेश से ब्राह्मणों के पलायन की घटनाएँ सुनने में आई हैं।

भारत के हर प्रदेश से पलायन नहीं हुआ है . पलायन के प्रदेश वही हैं जहाँ संख्याबल कम है।


तरह तरह से ब्राह्मण विरोध खुलकर व्यक्त किया जाता है रहा है , किसी अन्य जाति का ऐसा विरोध जातिवाद की श्रेणी में आता है। पर जाति के आधार पर ही ब्राह्मण विरोध तो जातिवाद का ही विरोध है।

ये देखिए तमिलनाडु में छ्पा एक कार्टून . एक सूअर को जनेऊ पहनाकर बनाया गया ये कार्टून ब्राह्मणों पर भड़ास निकालने का प्रयास है ।

ब्राह्मण: हमारे लिए तो वाराह अवतार पूजनीय है इसमें क्या अपमान? 🙏🙏🙏 इसको बनाने वाले के मन मे गुबार को देखकर तो लगता कि बेचारा बहुत दुखी है .

इस कार्टून को देखें। ब्राह्मण की चोटी एक सर्प की भाँति गरीब को डस रही है। और हाथ में मनु और वेद लिये हुए है.

यहाँ पर प्रश्न है कि क्या इन पुस्तकों को केवल ब्राह्मण मानते हैं ?

  • यदि इन पुस्तकों को केवल ब्राह्मण मानते हैं तो सिद्ध हुआ कि वे समाज को प्रभावित ही नहीं कर पा रहे। और इस स्थिति में वे किसी के विरुद्ध इनका प्रयोग कैसे करेंगे।
  • यदि इन पुस्तकों को समाज के अन्य वर्ग भी मानते हैं तो फिर इनको ब्राह्मणो से जोड़ने का क्या प्रयोजन ?

आँकड़े ये कहते है कि दलितों को छोड़कर अन्य सभी जातियों में ब्राह्मण सबसे अधिक गरीब हैं।

वास्तविकता ये है कि कुछ चुनिन्दा ब्राह्मणो को छोड़कर भारत के सभी ब्राह्मण सुदामा की तरह दरिद्र हैं। जो स्वयं ही दरिद्र है वो किसी को किस प्रकार की प्रताड़ना दे सकता है ? किसी प्रकार का झगड़ा उसके बस की बात नहीं . इक्का दुक्का कहीं मंदिर में जाने रोकने जो घटनाएँ होती थी वो पुरानी हो गई हैं।

लाक्षागृह काण्ड के बाद जब पाण्डव एक गाँव में जाकर रुके तो एक ब्राह्मण का आश्रय मिला। उस गाँव के लोग बकासुर नाम के राक्षस के यहाँ बारी बारी से जाते थे और जो भी जाता था बकासुर उन्हें खा जाता था। ये ब्राह्मण इतना शक्तिशाली तो नहीं था कि उसे ना जाना पड़े ना ही ऐसा था की गाँव वाले इतना सम्मान करते हो कि उसे ना जाने दें। इसके स्थान पर भीम ने जाकर बकासुर वध किया था , लेकिन गाँव वालो के ऊपर उसका कोई विशेष अधिकार नहीं था।

हम प्राचीन कथाओं के ऋषियों को ब्राह्मण कहकर उनको जाति में बाँटते रहते जबकि वो जाति रहित थे। उस समय जातियाँ तो नहीं थी लेकिन पैतृक व्यवसाय दो देखा जा सकता है। महाभारत लिखने वाले वेद व्यास की माता मछुहारे की बेटी थी , बताया जाता है कि रामायण लिखने वाले वाल्मीकि एक समय डाकू थे , फिर भी समाज ने उन्हें इतना सम्मान दिया। महर्षि विश्वामित्र एक राजा से ऋषि बने।

नीचे दिए इस चित्र को देखिए क्या लिखा है ?

"ब्राह्मणिक पितृसत्ता का दमन कर दो"

अब ब्राह्मणिक पितृसत्ता क्या बला है भाई ? यदि केवल पितृसत्ता की बात हो तो पितृसत्ता पूरे विश्व में रही है। अब भारत छोड़कर विश्व भर की समस्याओं का दोष ब्राह्मण लेंगे ?


जातिवादी हिंसा में ना शामिल होते हुए भी ब्राह्मण ही दोष लेगा

भारत की हर समस्या का दोष ब्राह्मण को देना बड़ा सरल है , इससे कोई राजनैतिक नुकसान होने की सम्भावना नही दिखती । किसी प्रताडन में यादव शामिल हो , जाट शामिल हो , ठाकुर शामिल हो , या ब्राह्मण शामिल हो लेकिन दोष सभी का ब्राह्मण को ही है।

दलितों पर अत्याचारों की घटनाओं का विश्लेषण करके पता चलता है कि अधिकांश घटनाओं में ब्राह्मण एक पक्ष होता ही नहीं है। इस पृष्ठ पर भारत के जातीय दंगो या झगड़ो की सूची है। इसमें ब्राह्मणों का नाम उन्ही स्थानों पर आता है जहाँ वो मारे गए।

भारत में जाति से संबंधित हिंसा - विकिपीडिया

दलित को किसी ने भी मारा हो दोष तो ब्राह्मणो को दिया जाना है तो क्या हर्ज कि फिल्म में नाम बदलकर ब्राह्मण कर दिया जाए। जिसको ये ही नहीं जानना है कि उस पर हो रहा अत्याचार आ कहाँ से रहा है , क्या उस पर अत्याचार घटेगा ?

इस फिल्म में जो दिखाया गया है वो भारत में हो तो रहा है , सत्य घटना पर आधारित भी है फिल्म , बदलाव बस इतना है कि किया किसी और ने और फिल्म ने दिखाया ब्राह्मण।


गालियाँ और भड़ास निकलना सामान्य है

राजनैतिक स्तर पर ब्राह्मणों को जमकर गालियाँ दी जाती है जो जिसको समाज सेवा के काम गिना जाता है ।

कालिजों में अक्सर कुछ जातिवादी ग्रुप बन जाते हैं जिनका काम ब्राह्मण छात्रों को गालियाँ देना होता है। मेरे कालिज के कुछ जातिवादी ग्रुप अपनी मंत्रणाएँ करते थे और उन मंत्रणाओं मे जिन्हे गालियॉं दी जाती उनमे मैं भी था। कारण ? मेरा ब्राह्मण होना। कालिज जैसे स्थान में जहाँ बड़े बड़े जात धर्म छोड़ देतें हैं वहाँ ये खुद को अलग थलग करके फिर दूसरों को जातिवादी भी बताते हैं। संयोग से उन मंत्रणाओं में जाने वाले सभी लोगों को ये बाते पसंद नहीं आती थी , उन्ही कुछ के कारण मुझे इस घृणा का पता भी चला था।


घृणा के कारण दलित नेतृत्व से सद्भाव नदारद

समाज मे ये घृणा इतनी अधिक हो चुकी थी कि दलों को ब्राह्मणों से किसी राजनैतिक लाभ की भी इच्छा नहीं थी। २००७ के चुनाव के पूर्व स्वयं सुश्री मायावती जी को ये विश्वास नहीं था कि ब्राह्मण उनको वोट दे सकते हैं। उनका मष्तिस्क ये कल्पना किये हुए था कि जितना गुबार उनके मन में ब्राह्मणो के प्रति है, ब्राह्मण उससे कहीं अधिक नफरत उनसे करते हैं। लेकिन जब उन्होंने अपना मन बदला तो परिणाम सबने देखा। जो पेड़ आपको छाया दे सकता है आप आँख मूँदकर काटने में लगे हो।

आज किसी भी दलित नेतृत्व को ब्राह्मण के समर्थन से भय लगता है , नफरत के आधार तो समर्थन प्राप्त हुआ वो कहीं चला ही ना जाए।

ये लिखते तो है जाति है कि जाती नहीं , लेकिन जाति के ना जाने की सबसे बड़ी बाधा वो स्वयं बने हैं। अरे आपको जाती समाप्त करनी होती तो लोग अंतर्जातीय विवाह कर रहे हैं उनसे मिलकर उनको प्राहोत्साहन देते।


प्रदेश या राष्ट्रिय स्तर पर कोई ब्राह्मण दल नहीं

कोई बड़ा राजनैतिक दल नहीं जो केवल ब्राह्मणों का हो। कोई बड़ा नेता नहीं जो खुलकर खुद को ब्राह्मण नेता कहता हो। जबकि अन्य सभी समुदायों के नेता भारत में हैं , फिर भी ब्राह्मण पर प्रथम हमला होता है।

उत्तर प्रदेश में यादव 10 प्रतिशत हैं लेकिन उनका अपना एक अलग राजनैतिक दल है , ब्राह्मण भी 10 प्रतिशत हैं उनका अलग राजनैतिक दल नही है . उत्तराखण्ड में ब्राह्मणो का प्रतिशत 30 है , फिर भी अलग दल नही . पाँच प्रतिशत जाटो की भी पार्टी है . हर प्रदेश में उसकी जातियोंं के अनुसार पार्टियाँ हैं कहीँ ठाकुर , कहीँ मराठा , कहीँ राजपूत और ये सभी बडी सहजता से जातिवाद का दोष ब्राह्मणो पर मढते रहते हैं .


दलितों के अंदर की जातियाँ क्योँ शेष हैं ?

मान लेते हैं कि जातिगत विवाह में ब्राह्मण आड़े आते हैं। तो क्या ब्राह्मण दलित और वाल्मीकि के विवाह को भी मना करते हैं ? कितने जाटव हैं जिन्होंने किसी बाल्मीकि से विवाह किया हो ? इसके उलट हजारों ब्राह्मणों के उदाहरण हैं जिन्होंने दलितों से विवाह किया है. डाक्टर भीमराव आंबेडकर जी की पत्नी सविता ब्राह्मण थी , राम विलास पासवान जी की पत्नी ब्राह्मण हैं ? लेकिन दलित वाल्मीकि विवाह के कितने उदाहरण आप दे सकते हैं ? दोष देना सरल है लेकिन कर के भी दिखाना चाहिए। दलितों के अंदर की जतियाँ क्यों समाप्त नहीं हो जा रही हैं , उसे कौन रोक रहा है ?

भारत में आज जो लोग जातिवाद तोड़ रहे हैं उनमे ब्राह्मण ही सबसे अग्रणी है। अंतर्जातीय विवाह करने वालों में ब्राह्मणों का प्रतिशत उनकी आबादी की तुलना में सबसे अधिक है।


इस पलायन के लाभ हानि।

व्यक्तिगत तौर मैंने बड़े जीवनकाल तक भारत से बाहर रहने की नहीं सोची , भ्रमण अवश्य किया। कालिज के समय तक तो मेरा मानना था कि इससे भारत का नुकसान होता है। फिर मैं बहुत भारत प्रेमी रहा हूँ , इसलिए ये विचार नहीं आते थे कि विदेशों में जाकर रहूँ। बाद में ज्यो ज्यो व्यावसायिक अनुभव हुआ तो लाभ हानि के बहुत से पक्ष दिखाई देने लगे.

भारत के समाज लम्बे समय तक व्यवसाय विरुद्ध माहौल भी रहा है। इस परिस्थियों में भारतीय युवा के समक्ष एक ही विकल्प होता था , सरकारी नौकरी। क्योंकि निजी क्षेत्र तो भारत में विकसित हो नहीं पाया। निजी क्षेत्र विकसित नहीं होगा तो करदाता नहीं होंगे। करदाता नहीं होंगे तो सरकारी नौकरियाँ कहाँ से आएँगी। निजीक्षेत्र बढ़ता है तो सरकारी नौकरियाँ स्वयं ही बढ़ती है। यदि चालीस वर्ष पूर्व को प्रतिभा पलायन ना करके भारत में रहे तो उसे यहाँ पर उतने अवसर ही नहीं होंगे। वो प्रतिभा यहाँ रहकर समाज को कुछ नहीं दे पायेगी। बाहर जाकर वहाँ अपना विकास करके और उस धन का कुछ भाग अपने परिवारों को भारत में भेजकर थोड़ा ही सही , अर्थव्यस्था में योगदान तो दिया। फिर वहाँ काम करने वाले लोगों की छवि के कारण ही भारत में IT सेक्टर में काम आया। जिससे यहाँ रोजगार बढ़ें। अब अमरीका में भारतीयों की संख्या एक प्रतिशत है , कनाडा में पाँच प्रतिशत है , और इंग्लॅण्ड में भी पाँच प्रतिशत के आसपास है। ये संख्याएँ इतनी हैं कि राजनीति को भी थोड़ा बहुत प्रभावित कर पाए। तो एक प्रकार से इस पलायन से भारत को लाभ ही पहुँचा है।विदेशी भारतीयो के कारण भारत में निवेश आता है , भारत के राजनैतिक सम्बंध सुधरते हैं .

भारत की जनसँख्या काफी है , उसकी तुलना में विदेश जाने वाले लोगों की कुल संख्या नगण्य है। भारत के व्यवसाय के विरुद्ध माहौल में ये लोग भारत में कुछ ख़ास कर भी नहीं सकते थे। विदेशो में रहकर भी ब्राह्मण भारत और भारतीय संस्कृति का नाम ऊँचा ही करता है। भारत से पलायन करके भी मन में भारत ही बसा होता है।


भारतीय समाज सदैव परिवर्तन शील रहा है। समय समय पर प्रथाएँ पुरानी होती रही है और हमारा समाज उनको छोड़ता रहा है। समाज में जब परिवर्तन के लिए आंदोलन और क्रांतियाँ होती है तब कुछ समय के लिए जोश बहुत अधिक होता है उस दिशा में झुकाव थोड़ा अधिक हो जाता है। तब कोई नई बुराई जन्म ले रही है इस ओर किसी का ध्यान नही जाता . लेकिन समय के साथ वो ठीक भी हो जाता है। पिछली शताब्दी का ब्राह्मण विरोधी माहौल इसी अधिक झुकाव का परिणाम है। जो समय के साथ ठीक हो जायेगा।

उम्मीद करता हूँ कि जब ब्राह्मणों पर भड़ास निकाल लेने के बाद वो भड़ास शांत होगी तब भारत से जातिवाद भी समाप्त होगा।


© सन्दीप दीक्षित , सर्वाधिकार सुरक्षित।

इस प्रकार के अन्य रोचक उत्तर आप मेरे मञ्च विश्वशिरोमणि भारत पर देख सकते हैं। इस आलेख को उद्धृत करते हुए इस लेख की कड़ी/लिंक का भी विवरण दें।

रविवार, 12 जून 2022

संत मीराबाई क्यों गुरु रविदास जी की शिष्य बने

 ऐसा भी कहा जाता है 

जिस श्री कृष्ण जी के मंदिर में मीराबाई पूजा करने जाती थी, उसके मार्ग में एक छोटा बगीचा था। उसमें कुछ घनी छाया वाले वृक्ष भी थे। उस बगीचे में भगतों के साथ  संत रविदास जी सत्संग कर रहे थे। सुबह के लगभग 10 बजे का समय था। मीरा जी ने देखा कि इन संत से तो मैं पहले भी मिल चुकी हूं और मीरा बाई देखती है कि यह संत शिरोमणि सतगुरु रविदास जी महाराज है जिन्होंने मुझे एक बार पहले गिरधर नागर की तस्वीर भी दी थी चलो आज फिर इनसे भेंट करते यहाँ परम पिता परमात्मा की चर्चा या कथा चल रही है। कुछ देर सुनकर चलते हैं।

संत रविदास जी ने सत्संग में संक्षिप्त सृष्टि रचना का ज्ञान सुनाया। कहा कि श्री कृष्ण जी यानि श्री विष्णु जी से ऊपर अन्य सर्वशक्तिमान परमात्मा है।

यदि भगति करने के बाद भी जन्म-मरण समाप्त नहीं हुआ तो भक्ति करना न करना समान है। जन्म-मरण तो श्री कृष्ण जी (श्री विष्णु) का भी समाप्त नहीं हुआ।। फिर 

उसके पुजारियों का कैसे होगा। जैसे हिन्दू संतजन कहते हैं कि गीता का ज्ञान श्री कृष्ण अर्थात् श्री विष्णु जी ने अर्जुन को बताया। गीता ज्ञानदाता गीता अध्याय 2 श्लोक 12, अध्याय 4 श्लोक 5, अध्याय 10 श्लोक 2 में स्पष्ट कर रहा है कि हे अर्जुन! तेरे और मेरे बहुत जन्म हो चुके हैं। तू नहीं जानता, मैं जानता हूँ। इससे स्वसिद्ध है कि श्री कृष्ण जी का भी जन्म-मरण समाप्त नहीं है। यह अविनाशी नहीं है। इसीलिए गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में गीता बोलने वाले ने कहा है कि हे पारथ! तू सर्वभाव से उस परमेश्वर की शरण में जा। उस परमेश्वर की कृपा से ही तू सनातन परम धाम को तथा परम शांति को प्राप्त होगा।


संत रविदास जी के मुख कमल से ये वचन सुनकर परमात्मा के लिए भटक रही मिरा बाई कि आत्मा को नई रोशनी मिली। सत्संग के उपरांत मीराबाई जी ने जगत गुरु रविदास महाराज से प्रसन्न किया कि हे satguru Ravidas ji Maharaj जी! यदि आपकी आज्ञा हो तो मेरा एक प्रश्न है।मेरी शंका का समाधान करो। सतं रविदास जी ने कहा कि प्रश्न करो पुत्री!


प्रश्न:- हे गुरू जी! आज तक मैनें किसी से नहीं सुना कि श्री कृष्ण जी से ऊपर भी कोई परमात्मा है। आज आपके मुख से सुनकर मैं दोराहे पर खड़ी हो गई हूँ। मैं मानती हूँ कि संत झूठ नहीं बोलते। संत रविदास जी ने कहा कि आपके धार्मिक अज्ञानी गुरूओं का दोष है जिन्हें स्वयं ज्ञान नहीं कि आपके सद्ग्रन्थ क्या ज्ञान बताते हैं? देवी पुराण के तीसरे स्कंद में श्री विष्णु जी स्वयं स्वीकारते हैं कि मैं (विष्णु), ब्रह्मा तथा शंकर नाशवान हैं। हमारा आविर्भाव (जन्म) तथा तिरोभाव (मृत्यु) होता रहता है।



मीराबाई बोली कि हे महाराज जी! भगवान श्री कृष्ण मुझे साक्षात दर्शन देते हैं। मैं उनसे संवाद करती हूँ। संत रविदास जी ने कहा कि हे मीराबाई ! आप एक काम करो। भगवान श्री कृष्ण जी से ही पूछ लेना कि आपसे ऊपर भी कोई मालिक है। वे देवता हैं, कभी झूठ नहीं बोलेंगे। मीराबाई को लगा कि वह पागल हो जाएगी यदि श्री कृष्ण जी से भी ऊपर कोई परमात्मा है । 

रात्रि में मीरा जी ने भगवान श्री कृष्ण जी का आह्वान किया। त्रिलोकी नाथ प्रकट हुए। मीरा ने अपनी शंका के समाधान के लिए निवेदन किया कि हे प्रभु! क्या आपसे ऊपर भी कोई परमात्मा है। एक संत ने सत्संग में बताया है। श्री कृष्ण जी ने कहा कि मीरा! परमात्मा तो है, परंतु वह किसी को दर्शन नहीं देता। हमने बहुत समाधि व साधना करके देख ली है। मीराबाई जी ने सत्संग में संत रविदास जी से यह भी सुना था कि उस पूर्ण परमात्मा को मैं प्रत्यक्ष दिखाऊँगा। सत्य साधना करके उसके पास सतलोक में भेज दूँगा। मीराबाई ने श्री कृष्ण जी से फिर प्रश्न किया कि क्या आप जीव का जन्म-मरण समाप्त कर सकते हो? श्री कृष्ण जी ने कहा कि यह संभव नहीं। संत रविदास जी ने कहा था कि मेरे पास ऐसा भक्ति मंत्र है जिससे जन्म-मरण सदा के लिए समाप्त हो जाता है। वह परमधाम प्राप्त होता है जिसके विषय में गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा है कि तत्वज्ञान तथा तत्वदर्शी संत की प्राप्ति के पश्चात् परमात्मा के उस परमधाम की खोज करनी चाहिए जहाँ जाने के पश्चात् साधक फिर लौटकर संसार में कभी नहीं आते। उसी एक परमात्मा की भक्ति करो। मीराबाई ने कहा कि हे भगवान श्री कृष्ण जी! संत जी कह रहे थे कि मैं जन्म-मरण समाप्त कर देता हूँ। अब मैं क्या करूं। मुझे तो पूर्ण मोक्ष की चाह है। श्री कृष्ण जी बोले कि मीरा! आप उस संत की शरण ग्रहण करो, अपना कल्याण कराओ। मुझे जितना ज्ञान था, वह बता दिया। मीरा अगले दिन मंदिर नहीं गई। सीधी संत जी के पास अपनी नौकरानियों के साथ गई तथा दीक्षा लेने की इच्छा व्यक्त की तथा श्री कृष्ण जी से हुई वार्ता भी संत रविदास जी से साझा की। उस समय छूआछात चरम पर थी। ठाकुर लोग अपने को सर्वोत्तम मानते थे। परमात्मा मान-बड़ाई वाले प्राणी को कभी नहीं मिलता। मीरा जी तुरंत रविदास जी के पास गई और बोली, संत जी! मुझे दीक्षा देकर मेरा कल्याण करो। संत रविदास जी ने बताया कि बेटी ! मैं चमार जाति से हूँ। आप ठाकुरों की बेटी हो। आपके समाज के लोग आपको बुरा-भला कहेंगे। जाति से बाहर कर देंगे। पहले आप विचार कर लें। मीराबाई अधिकारी आत्मा थी। परमात्मा के लिए मर-मिटने के लिए सदा तत्पर रहती थी। बोली, संत जी! आप मेरे पिता, मैं आपकी बेटी। मुझे दीक्षा दो। भाड़ में पड़ो समाज। कल को  जब मैं अनेकों प्रकार की योनियों में भटक कर नर्क  भोगूगीं , तब यह ठाकुर समाज मेरा क्या बचाव करेगा? 

मीराबाई ने गुरु पर अटूट विश्वास किया और निर्गुण भक्ति की जिसे आज मीरा  की ख्याति देश विदेश में फैली हुई है

श्री कृष्ण जी के मंदिर में मीराबाई पूजा करने जाती थीं क्योंकि वह श्री कृष्ण को अपने पति के रूप में अपने दिमाग में और अपने दिल में बसा चुकी थी । जब मीरा बाल्यावस्था मैं थी उस वक्त उसकी मां छत पर घी मथ रही थी और मीरा अपनी मां के साथ खेल रही थी तभी रास्ते से एक बारात दूल्हे राजा के साथ जा रही थी तभी मीरा ने देखा तो वह अपनी मां से कहने लगी कि मां इतने आदमी बैंड बाजे के साथ और यह एक आदमी घोड़ी पर बैठा जा रहा है यह कहां जा रहा है और कौन है तब उसकी माता कहती है कि बेटा यह दूल्हा है और यह बारात है यह गांव में बरात आई है इसी तरह बैठे तेरी भी बारात आएगी एक दिन तभी मीरा  कहती है कि अगर मेरी बारात आएगी तो मेरा दूल्हा कैसा होगा एक बार उसकी मां इस बात को इग्नोर कर देती है मगर मीरा फिर पूछती है अब सोचने लगती है अब मैं क्या उत्तर दु । सामने मंदिर में जो घर में पूजा घर होता है वहां गिरिधर नागर अर्थात कृष्ण भगवान की तस्वीर रखी थी उसकी मां ने इशारा करते हुए कहा कि बेटा तुम्हारा दूल्हा ऐसा होगा जैसे गिरधर नागर इतना सुंदर तब मीरा ने बाल्यावस्था से ही गिरधर नागर को अपना पति मान लिया था और हमेशा उनको अपना पति के रूप मैं ही उनकी पूजा की लेकिन जब गुरु रविदास जी महाराज से भेंट हुई तब उन्हें आध्यात्मिक ज्ञान हुआ और उन्होंने आध्यात्मिक गुरु सतगुरु रविदास जी महाराज को बनाया।

           जय गुरु रविदास ।। जयगुरु समन दास।।

                   *Abhay das ji Deoband*